हौं इहि डर तैं डरी भयानक, देखि दाघ बिकराल।
आ न जायँ कहुँ वे मेरे डर इहाँ बिषम एहिं काल॥
सुनी बात तुमने नहिं प्यारे ! तब मन उपज्यौ रोष।
देखि तुम्हारौ बदन क्लांत अति, बढ्यौ रोष-पर-रोष॥
पर एहिं रोष देखि तुम कूँ पिय ! अब एहि भाँति उदास।
उदय भयौ अति दाह हृदय, जग उठी भयानक त्रास॥
थके-थकाए, प्यासे-झुलसे आए तुम करि प्यार।
स्वागत दूर, कियौ मैंने तुहरौ अपमान अपार॥
मीठी बात कही नहिं पूछी, करी न तनिक बयार।
मैं निर्दई मान कर बैठी, बढ़ा दियौ दुख भार॥
कैसैं कहा करूँ अब प्रियतम ! जा तैं तव मुख-कंज।
देखूँ परम प्रफुल्लित, सुरभित, सुषमामय, सुख-पुंज’॥
हँसि बोले-’प्यारी ! तुहरौ सुख ही मेरौ सुख-मूल।
होउ सुखी तुम, देखु, रह्यौ हौं सुख-झूले पै झूल’॥[1]