होत सो जो रघुनाथ ठटै।
पचि-पचि रहैं सिद्ध, साधक, मुनि, तऊ न बढ़ै-घटै।
जोगी जोग धरत मन अपनैं, सिर पर राखि जटै।
ध्यान धरत महादेवऽरु ब्रह्मा, तिनहूँ पै न छटै।
जती, सती, तापस आराधैं चारौ वेद रटै।
सूरदास भगवंत-भजन बिनु, करम फाँस न कटै।।263।।
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