हेरी मैं तो दरद दिवाणी होइ -मीराँबाई

मीराँबाई की पदावली

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विरहयातना


राग जोगिया


हेरी मैं तो दरद[1] दिवाणी होइ, दरद न जाणै मेरो कोइ ।। टेक ।।
घाइल की गति घाइल जाणैं, की जिण लाई होइ ।
जौहरि की ग‍ति जौहरी जाणै, की जिन जौहर होइ ।
सूली ऊपरि सेझ हमारी, सोवणा किस विध होइ ।
गँगन मँडल पै सेझ पिया की, किस विध मिलणा होइ ।
दरद की मारी बन बन डोलूँ, बैद मिल्‍या नहिं कोइ ।
मीराँ की प्रभु पीर मिटेगी, जद बैद साँवलिया होइ ।।72।।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. प्रेम
  2. - हेरी = अरी। दरद = प्रेम की पीड़ा। दिवांणी = पगली। होई = हो गई, बन गई। जाणै = समझ सकता है। गति = दशा, अवस्था। जिण = जिसने। लाई होइ = पैदा की हो। ( देखो - ‘हिरदा भीतरि दौं बलै, धूवां न प्रगट होइ। जाकै लागी सौ लखै, कै जिहि लाई सोइ’ - कबीर )। जौहरीं = रत्नों के पारखी। जिन = जिसमें। जौहर = गुण। सेझ = शय्या। सोवणा = सोना। गँगन मँडल = शून्य स्थान। जद = जब।
    विशेष= तुलना के लिए भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का 'मरम की पीर न जानै कोय' इत्यादि पद एवं 'कै सो जांनै जिनि यहु लाई, कै जिनि चोट सहारी' आदि कबीर साहब की पंक्तियाँ देखिए। इस संबंध में ठाकुर कवि का निम्नलिखित सवैया भी द्रष्टव्य है:-
    'लगी अन्तर मैं करै बाहिर को, बिन जाहिर कोउ न मानतु है।
    दुख औ सुख हानि औ लाभ सबै, घर की कोउ बाहर भानतु है।
    कवि ठाकुर आपनि चातुरी सो, सब ही सब भाँति बखानतु है।
    पर वीर मिले बिछुरे की बिथा, मिलि कै बिछुरे सोइ जानतु है॥'

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