हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 96

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
हित वृन्‍दावन

कृष्‍णस्याथो गोष्‍ठ वृन्‍दावन तत्।
गोप्‍या क्रीडं धाम वृन्‍दावनान्‍त:।।
अत्‍याश्‍चर्या सर्वेतोस्‍माद् विचित्रा।
श्रीमद्राधा-कुंज-वाटी चकास्ति।।
आद्योभावो यो विशुद्धोति पूर्णे-
स्‍तद्रूप पा सा ताद्दशोन्‍मादि सर्वा:।।[1]

इस दृष्टि से वृन्‍दावन-रति का अर्थ है, वृन्‍दावनात्मिका रति, वृदावन रूपा रति। यह रति प्रेम की वह भूमि है, भूमिका है, ‘जिसके चारों ओर श्‍यामवर्ण यमुना के रूप में श्रृंगार रस कुंडल बाँधकर प्रवाहित होता रहता है और जिसके परम पावन पुलिन पर प्रेम-स्‍वरुप श्‍याम-श्‍यामा श्रृंगार-क्रीडा करते रहते हैं। श्‍याम-श्‍यामा वृन्‍दावन से उसी प्रकार नित्‍य सम्‍बन्धित हैं जैसे रस रति से सम्‍बन्धित हैं। ‘यह न तो कहीं से वृन्‍दावन में आये हैं और न यहाँ से कहीं जायेंगे। यहाँ यह दोनों परावार- विवर्जित और अत्‍यन्‍त विषम काम-सागर में अनाद्यनंत क्रीडा करते रहते हैं। इनकी दिव्‍य कांति सहज रूप से गौर और श्‍यामल है, इनका नित्‍य-कैशोर अति आश्चर्यमय है और यह परस्‍पर अंगों के मिले रहने पर ही जीवन धारण करते हैं। ऐसे युगल जहाँ रहते हैं, मैं उस वृन्‍दावन की वंदना करता हूँ।

आयातं न कुतश्चन नो गन्‍तृ स्‍मरैकाबुधौ-
पारवार विवर्जितेति विषमे नाद्यन्‍त कालं लुठत्।
गौर-श्‍यामल दिव्‍य कांति सहजात्‍याश्चर्य कैशोरकं।
यत्रास्‍ते मिथुनं मिथोऽंग मिलनाज्‍जीवन्‍नुमस्‍तद्वनम्।।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. वृन्‍दा० शतक 1-8,9
  2. श्री प्रबोधानंद सरस्‍वती श० 9-68

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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