हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 70

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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विशुद्ध प्रेम का स्वरूप


रसिक संतों ने नित्‍य-विहारी प्रेम की दो स्‍वभावगत वृत्तियों का वर्णन किया है जो उसके प्रकाश के साथ प्रकाशित होती है एवं जिनके प्रकाशित होने पर प्रेम की अनंत गुण प्रकाशित हो जाते हैं। प्रेम के विशुद्ध रूप को प्रकाशित करने-वाली उसकी प्रथम वृत्ति तत्‍सुख-सुखित्‍व है। प्रियतम के सुख में सुखानुभव करना, शुद्ध प्रेम का सहज स्‍वभाव है। प्रेम में जहाँ तक अपने सुख की कामना है, वहाँ तक वह काम वासना से अधिक ऊँचा नहीं उठता। अपने सुख की मरीचिका नष्‍ट हो जाने पर ही प्रेम-देव के दर्शन होते हैं।

नित्‍य-विहार में इस वृत्ति का चरम उत्‍कर्ष प्रत्‍यक्ष हुआ है। यहाँ श्री राधा-माधव, सहचरिगण एवं वृन्‍दावन सहज ढंग से एक-दूसरे के सुख से सुखी होने की चेष्‍टा में रत हैं। हित चतुरासी के प्रथम पद में श्री राधा ने इस वृत्ति को आगे रख कर अपनी एवं अपने प्रियतम की प्रीति का वर्णन किया है और अपनी एवं श्‍यामसुन्‍दर की सम्‍पूर्ण चेष्‍टाओं, दृष्टि एवं प्राणों का नियामक इस वृत्ति को ही बतलाया है। वे कहती हैं-‘प्रियतम जो कुछ भी करते हैं, वह मुझे अच्‍छा लगता है एवं जो मुझको अच्‍छा लगता है, प्रियतम वहीं करते हैं।’ पूर्ण रूप से तत्‍सुख-मयी क्रिया का यही रूप है। तत्‍सुखमयी दृष्टि से चरम स्थिति यह है -‘मुझको तो प्रियतम के नेत्रों में रहना अच्‍छा लगता है और प्रियतम मेरे नैनों के तारे बन जाना चाहते हैं।’ श्री राधा की दृष्टि का सुख सदैव प्रियतम को देखने में है और प्रियतम का सुख सदैव प्रिया के दर्शन में है। अत: एक-दूसरे के सुख के लिये यह दोनों एक दूसरे की दृष्टि में समा जाना चाहते हैं। तत्‍सुख-मय प्राणों का रूप यह है - प्रियतम मेरे तन, मन, और प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं, और प्‍यारे न अपने करोड़ों प्राण मेरे ऊपर न्‍यौछावर कर दिये हैं।‘

प्रेम के इन दो स्‍वरूपों को अपने-अपने प्रेम का एक ही रूप बतलाते देख कर हितरूपा सखी कहती हैं-‘आप दोनों श्‍याम और गौर हंस-हंसिनी हैं। जिस प्रकार जल और तरंग को न्‍यारा नहीं किया जा सकता, उसी प्रकार आपके दो स्‍वरूपों में प्रगट होने वाली एकही शुद्ध-तत्‍सुख-मयी प्रीति को अलग करके नहीं समझाया जा सकता।[1]

सहचरि-गण तो शुद्ध रति की साक्षात् मूर्ति ही हैं। श्री राधा माधव परस्‍पर सुख देने की चेष्‍टा में संलग्‍न है और सहचरि-गण इन दोनों को परस्‍पर सुख पाते देखकर सुखी हैं। उज्‍ज्‍वल-प्रेम के यह दो घन एक दूसरे पर प्‍यार की वर्षा करते रहैं, तत्‍सुख-मयी सखियों के प्राणों के सिंचन के लिये यह पर्याप्‍त है। हित-प्रभु कहते हैुं-‘लाल और ललना परस्‍पर मिलित होकर मेरे हृदय को शीतन करते हैं’- ‘हितहरिवंश लाल ललना मिलि हियौ सिरावत मोर।’ ‘राधामाधव के हित का चिंतन करने वाली उनकी दासियाँ इस शुद्ध नेत्र-सुख को देखकर फूली नहीं समातीं और उसके ऊपर अपने प्राणों को न्‍यौछावर करती रहती हैं।‘

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हि. च. 57

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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