हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 57

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त-हित की रस-रूपता


वास्‍तव में, हमारा परिचित प्रेम भी भोक्‍ता–भोग्‍यमय है; केवल इन दोनों के स्‍वरूप एवं सम्‍बन्‍ध में विपर्यय हुआ रहता है। प्रेम के शुद्धतम रूप में भोक्‍ता और भोग्‍य सर्वथा तत्‍सुख-मयी प्रीति में आबद्ध रहते हैं। इनी इस अद्भुत प्रीति का सम्मिलित रूप प्रेरक प्रेम है। भोक्‍ता और भोग्‍य की स्थिति स्‍वभाविक न होने के कारण, लोक में, प्रेरक प्रेम किंवा प्रेम सम्‍बन्‍ध की भी स्थिति शुद्ध नहीं दिखलाई देती। प्रेम की सहज कृपा के उदय होने पर सर्व-प्रथम यह प्रेरक प्रेम हृदय में प्रकाशित होता है। प्रेरक-प्रेम का एक रूप श्री वृन्‍दावन है। इसको प्रेम की आधार स्थिति माना गया है। यह स्‍वयं प्रेम-स्‍वरूप होते हुए प्रेम की विविध रसकेलि का आधार बना रहता है। श्रीहिताचार्य ने, इसीलिये रसकेलि का गान प्रारंभ करते हुए सर्वप्रथम अति रमणीय श्रीवृन्‍दावन को दीनतापूर्वक प्रणाम किया है और श्री राधा-कृष्‍ण के बिना इसको सबके मनों के लिये अगम्‍य अगम्‍य बतलाया है।

प्रथम यथामति प्रणऊँ श्री वृन्‍दावन अतिरम्‍य।
श्री राधिका कृपा बिनु सबके मननि अगम्‍य।।[1]

अन्‍य रसों के साथ वृन्‍दावन-रस की एक भिन्नता उसकी रचना को लेकर जिसका परिचय ऊपर दिया जा चुका है। दूसरी भिन्‍नता संयोग वियोग के दृष्टि-कोण को लेकर है जिसका विचार अब किया जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हित चतु. 57

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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