श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
साहित्य
संस्कृत-साहित्य
और कहीं मूर्त-अमूर्त को मिलाकर इस अनंत सौंदर्य सागर का अवगाहन करने की चेष्टा करते हैं।[1] उनकी श्री राधा में प्रेमोल्लास की सीमा, परम रस चमत्कार-वैवित्र्य की सीमा, सौन्दर्य की एकान्त सीमा, नव वय रूप लावण्य की सीमा, लीला माधुर्य की सीमा, औदार्य वात्सल्य की सीमा, सुख की सीमा, और रति-कलाकेलि-माधुर्य की सीमा में आकर मिली है।[2] उनकी श्री राधा का लावण्य परम अद्भुत है, रति कला चातुर्य अति अद्भुत है, कांति महा अद्भुत है, लीला गति अद्भुत है, दृगभंगी अद्भुत है, स्मित अद्भुत तम है, अरे, वे अद्भूतता की मूर्ति ही हैं।[3] श्री राधा के चन्द्र मूख का, उनके अद्भुत धम्मिल्ल (केशों) का, कवर भार का, सीमंत का, कोमल बाहु लताओं का, उरोजों का, कटि का, जघन स्थली का और चनण-द्वयी[4] का बड़ा सुन्दर वर्णन, हित प्रभु ने इस ग्रन्थ में किया है। इसी प्रकार, उनकी निरूपम भ्रू-नर्तन-चातुरी, लीला खेलन चातुरी, वचन-चातुरी, संकेतागम-चातुरी, नव-नव क्रीड़ा कला चातुरी का जय जयकार उन्होंने पद-पद पर किया है।[5] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ लक्ष्मी कोटि विलक्ष्य लक्षण लसल्लीला किशोरी शतै- राराध्यं व्रज मंडलेति मधुरं राधाभिधानं परम्। ज्योति: किचन सिंचदुज्जवल रस प्राग्भाव माविर्भवद्- राधे चेतसि भूरि भाग्य विभवै: कस्माप्यहो जू भते ।।
- ↑ प्रेमोल्लासैक सीमा परम रस चमत्कार वैचित्र्य सीमा, सौन्दर्यस्यैक सीमा किमपि नववयौ रूप लावण्य सीमा। लीला माधुर्य सीमा निजजन परमौदार्य वात्सल्य सीमा, सा राधा सौल्य सीमा जयति रति कला केलि माधुर्य सीमा ।।
- ↑ लावण्यं परमाद्भुत रति-कला-चातुर्य मत्सदूभुत, कांति: कापि महाद्भूता बरतनो लीला गतिञ्चद्भुतां। दृग्भंगी पुनरद्भुताद्भुततसा यस्या: स्मितंचाद्भुत, सा राधाद्भुत मूर्तिरद्भुत रसं दास्यं कदा दास्यति ।।
- ↑ कामं तूलिकया कारण हरिणा चलक्तकै रंकिता। नाना केलि विदग्ध गोप रमणी वृन्दे तथा वंदिता ।। या संगुप्ततया तथोपनिषदां हृद्येव विद्योतते। सा राधाचरणद्वयी मम गति लस्यिैक लीलामयी ।।
- ↑ रा सु. नि, श्लोक 63, 9, 71, 156, 159, 119, 153।
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