श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त-प्रमेय
जिन सिद्धान्तों ने भगवान को प्रेम-स्वरूप मानकर प्रेमो-पासना का विधान किया है उनमें भगवत्-प्रेम को लौकिक-प्रेम से सर्वथा भिन्न बतलाया गया है। राधावल्लभीय सिद्धान्त में वही प्रेम-परिपाटी जो सबसे दूर है, इस विश्व में भरपूर बतलाई है और श्रीहिताचार्य ने उसी को अमृतत्व का मूल कहा है। जो रस रीति सवनि ते दूरि-सो सब विश्व रही भरपूरि। प्रथम पक्ष को मानने पर, प्रश्न यह होता है कि यदि भगवत-प्रेम लौकिक-प्रेम से सर्वथा भिन्न है तो उसमें लगभग उन ही भावों का प्रकाश क्यों होता है जो यहाँ के प्रेम के अंग हैं एवं उसका वर्णन यहाँ की प्रेम-परिपाटी के आधार पर कैसे संभव हो जाता है? यह सत्य है कि भगवत-प्रेम में ऐसे अनेक भावों का प्रकाश होता है जो यहाँ के प्रेम के लिये असम्भव है किन्तु इस बात से केवल इतना ही सिद्ध होता है कि भगवत-प्रेम यहाँ के प्रेम की अपेक्षा अधिक विशुद्ध एवं तीव्र होता है, वह यहाँ की जड़ सीमाओं से आबद्ध नहीं होता। राधावल्लभीय सिद्धान्त भी इन दोनों प्रेमों को अनेक अंशों में भिन्न ही मानता है किन्तु इनकी तात्विक एकता में उसको तनिक भी संदेह नहीं है। भक्तों की जो विमल बुद्धि जीवात्मा एवं परमात्मा जैसे सर्वथा भिन्न दिखलाई देने वाले तत्त्वों की आन्तरिक एकता को पहिचान लेती है, वह इन दोनों प्रेमों की तात्विक अभिन्नता को न पहिचान ले, यह संभव नहीं है। श्रीहित हरिवंश ने प्रेम-तत्व की इस मौलिक एकता के आधार पर अपने प्रेम-दर्शन को खड़ा किया है एवं शुद्ध प्रेमोपासना के लिये परात्पर प्रेम-तत्व की अद्धय एवं अखण्ड स्थिति के स्वीकार को अनिवार्य बतलाया है। प्रेम एक सम्बन्ध-विशेष का नाम है। यह सदैव दो में रहकर उन दोनों को एक बनाये रखता हैं। मोहन जी ने कहा है कि ‘दो मिलकर जिस एक पंथ का दर्शन कराते हैं, वही जग में प्रेम कहलाता है।' द्वै मिलि एक पंथ दिखरावहि-सोई जग में प्रेम कहावहि।[4] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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