हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 39

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त-प्रमेय


श्री हित हरिवंश की गुरु एवं इष्‍ट श्रीराधा थीं, अतएव ‘हित’ ही गुरु है और वही इष्‍ट। इष्ट और गुरु का अभेद सब वैष्‍णव-सम्‍प्रदायों को अभीष्‍ट है, क्‍योंकि इष्‍ट और गुरु के भिन्‍न बने रहने पर उपासना की अनन्‍यता सिद्ध नहीं होती। साधारणतया गुरु का दर्शन इष्‍ट में किया जाता है, इस सम्‍प्रदाय में इष्‍ट का दर्शन गुरु में किया गया है। अपने संस्‍कृत ग्रन्‍थ ‘श्री राधा सुधा निधि’ में श्रीहित हरवंश ने गुरु के भजन का ही विधान किया है एवं इस भजन को परम विक्रमशाली बतलाया है[1] इसी ग्रन्‍थ में अन्‍यत्र, उन्‍होंने अपनी परमाराध्‍या श्री राधिका का स्‍मरण, घनानंद- मूर्ति एवं ‘नित्‍य-नवीन प्रेम-लक्ष्‍मी’ के रूप में किया है।[2]

जिन सिद्धान्‍तों ने भगवान को प्रेम-स्‍वरूप मानकर प्रेमो-पासना का विधान किया है उनमें भगवत्-प्रेम को लौकिक-प्रेम से सर्वथा भिन्‍न बतलाया गया है। राधावल्‍लभीय सिद्धान्‍त में वही प्रेम-परिपाटी जो सबसे दूर है, इस विश्‍व में भरपूर बतलाई है और श्रीहिताचार्य ने उसी को अमृतत्‍व का मूल कहा है।

जो रस रीति सवनि ते दूरि-सो सब विश्‍व रही भरपूरि।
मूरि सजीवनि कहि दई[3]

प्रथम पक्ष को मानने पर, प्रश्‍न यह होता है कि यदि भगवत-प्रेम लौकिक-प्रेम से सर्वथा भिन्‍न है तो उसमें लगभग उन ही भावों का प्रकाश क्‍यों होता है जो यहाँ के प्रेम के अंग हैं एवं उसका वर्णन यहाँ की प्रेम-परिपाटी के आधार पर कैसे संभव हो जाता है? यह सत्‍य है कि भगवत-प्रेम में ऐसे अनेक भावों का प्रकाश होता है जो यहाँ के प्रेम के लिये असम्‍भव है किन्‍तु इस बात से केवल इतना ही सिद्ध होता है कि भगवत-प्रेम यहाँ के प्रेम की अपेक्षा अधिक विशुद्ध एवं तीव्र होता है, वह यहाँ की जड़ सीमाओं से आबद्ध नहीं होता। राधावल्‍लभीय सिद्धान्‍त भी इन दोनों प्रेमों को अनेक अंशों में भिन्‍न ही मानता है किन्‍तु इनकी तात्विक एकता में उसको तनिक भी संदेह नहीं है। भक्‍तों की जो विमल बुद्धि जीवात्‍मा एवं परमात्‍मा जैसे सर्वथा भिन्‍न दिखलाई देने वाले तत्त्वों की आन्‍‍तरिक एकता को पहिचान लेती है, वह इन दोनों प्रेमों की तात्विक अभिन्‍नता को न पहिचान ले, यह संभव नहीं है। श्रीहित हरिवंश ने प्रेम-तत्‍व की इस मौलिक एकता के आधार पर अपने प्रेम-दर्शन को खड़ा किया है एवं शुद्ध प्रेमोपासना के लिये परात्‍पर प्रेम-तत्‍व की अद्धय एवं अखण्‍ड स्थिति के स्‍वीकार को अनिवार्य बतलाया है।

प्रेम एक सम्‍बन्‍ध-विशेष का नाम है। यह सदैव दो में रहकर उन दोनों को एक बनाये रखता हैं। मोहन जी ने कहा है कि ‘दो मिलकर जिस एक पंथ का दर्शन कराते हैं, वही जग में प्रेम कहलाता है।'

द्वै मिलि एक पंथ दिखरावहि-सोई जग में प्रेम कहावहि।[4]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रा. सु. 81
  2. रा. सु. 126
  3. से. वा. 2-2
  4. केलि-कल्‍लोल

संबंधित लेख

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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