श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
श्री हरिवंश-चरित्र के उपादान
इस ग्रंथ के अठारहवें विलास में श्री हित हरिवंश का चरित्र दिया हुआ मिलता है। चरित्र को पढ़ने से मालूम हो जाता है कि इसका उद्देश्य किसी ऐतिहासिक तथ्य का कथन करना नहीं है। विचित्र बात तो यह है कि जो ग्रंथ अपने को सं. 1657 की रचना बताता है (देखिये चौबीसवाँ विलास), उसके कर्ता को श्री हित हरिवंश के चारों पुत्रों के ठीक नाम मालूम नहीं है। सं. 1657 में हित जी के चारों पुत्र विद्यमान थे एवं ग्रन्थ निर्माण और पद रचना कर रहे थे। ‘प्रेम-विलास’ में इनके नाम क्रमश: कृष्णादास, सूर्यदास, वनचन्द्र और वृन्दावन चन्द्र दिये हुए हैं! हम देख चुके है कि इनके नाम क्रमश: श्री वनचन्द्र, कृष्णा चन्द्र गोपीनाथ एवं मोहनचन्द्र थे। इन चारों की रचनाएँ प्राप्त हैं। इस ग्रंथ में श्री हित हरिवंश का चरित्र दोनों संप्रदायों के ‘एकादशी व्रत’-सम्बन्धी मत भेद को लेकर खड़ा किया गया है। श्री हित हरिवंश का महा प्रसाद के प्रति अत्यन्त पक्षपात था। नाभाजी ने उनके सम्बन्ध में जो छप्पय लिखा है, उसमें भी इस बात का उल्लेख किया है। सर्वंसु महाप्रसाद प्रसिद्ध ता के अधिकारी। निष्कपट एवं अनन्य दास्य उनके सिद्धान्त का एक प्रधान अंश था। वे दास के लिये स्वामी के उच्छिष्ट से अधिक मूल्यवान अन्य कोई वस्तु नहीं मानते थे। भगवत उच्छिष्ट को, इसी लिये, उन्होंने महाप्रसाद- ‘स्वामी की परम प्रसन्नता’ का रूप माना है। उनकी दृष्टि में महाप्रसाद का त्याग किसी दिन भी एकादशी के दिन भी नहीं किया जा सकता। उधर श्रीमद्भागवत आदिक वैष्णव शास्त्र एकादशी व्रत पर बहुत भार देते हैं और शास्त्र- विधि को मानने वाले वैष्णवों के गले इस बात का उतरना बहुत कठिन था। हित-प्रभु के जीवन काल में ही इस बात का तीव्र विरोध हुआ था। ‘सेवक वाणी’ में, जिसकी रचना हितजी के निकुंज गमन के थोड़े दिन बाद ही हुई थी, इस विरोध का संकेत मिलता है। सेवक जी ने एक स्थान पर कहा है ‘हित प्रभु उन लोगों पर भी अनुग्रह रखते थे जो असहिष्णुता के कारण उनकी निंदा करते थे।’ [1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (सेवक वाणी- 12-2)
संबंधित लेख
विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज