हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 26

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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श्री हरिवंश-चरित्र के उपादान


लेखक ने विस्तृत उद्वरण देकर यह भी बतलाया है कि ‘’प्रेम विलास में वर्णित घटनाओं का सम्प्रदाय के प्रचलित इतिहास से सीधा विरोध पड़ता है। स्वयं ग्रंथ के अन्दर परस्पर विरोधी बातों के भी कई उदाहरण उन्होंने दिए हैं। एक मजेदार बात लेखक ने यह बतलाई है कि ‘प्रेम-विलास’ की प्रसिद्ध प्राचीन प्रतियों के पाठ एक दूसरे से नहीं मिलते। सुप्रसिद्ध वैष्णव साहित्यिक हाराधनदत्त महाशय ने सन् 1893 के आश्विन मास की ‘‘विष्णु प्रिया’’ पत्रिका में लिख है ‘हमारे घर में दो सौ वर्ष पुरानी ‘प्रेम-विलास’ की जो प्रति है, उसमें एवं मुद्रित पुस्तक में अनेक स्थलों पर प्रसंगों का मेल नहीं बैठता.... केवल वर्त्तमान काल की ही बात नहीं है, प्राचीन काल से ही ‘प्रेम-विलास’ के अनेक स्थलों में अनेक लोगों की कारीगरी है। अत: इस ग्रंथ का विशेष सावधानी के साथ पाठ करना चाहिये।’ गौड़ीय भक्ति-साहित्य के सुप्रसिद्ध व्याख्याता श्री अतुल कृष्ण गोस्वामी ने ‘चैतन्य भागवत’ की अपनी भूमिका में लिख है- ‘प्रक्षिप्तांश-पूर्ण’ प्रेम-विलास की सब बातें विश्वास योग्य नहीं हो सकतीं।

इस ग्रंथ के अठारहवें विलास में श्री हित हरिवंश का चरित्र दिया हुआ मिलता है। चरित्र को पढ़ने से मालूम हो जाता है कि इसका उद्देश्य किसी ऐतिहासिक तथ्य का कथन करना नहीं है। विचित्र बात तो यह है कि जो ग्रंथ अपने को सं. 1657 की रचना बताता है (देखिये चौबीसवाँ विलास), उसके कर्ता को श्री हित हरिवंश के चारों पुत्रों के ठीक नाम मालूम नहीं है। सं. 1657 में हित जी के चारों पुत्र विद्यमान थे एवं ग्रन्थ निर्माण और पद रचना कर रहे थे। ‘प्रेम-विलास’ में इनके नाम क्रमश: कृष्णादास, सूर्यदास, वनचन्द्र और वृन्दावन चन्द्र दिये हुए हैं! हम देख चुके है कि इनके नाम क्रमश: श्री वनचन्द्र, कृष्णा चन्द्र गोपीनाथ एवं मोहनचन्द्र थे। इन चारों की रचनाएँ प्राप्त हैं।

इस ग्रंथ में श्री हित हरिवंश का चरित्र दोनों संप्रदायों के ‘एकादशी व्रत’-सम्बन्धी मत भेद को लेकर खड़ा किया गया है। श्री हित हरिवंश का महा प्रसाद के प्रति अत्यन्त पक्षपात था। नाभाजी ने उनके सम्बन्ध में जो छप्पय लिखा है, उसमें भी इस बात का उल्लेख किया है।

सर्वंसु महाप्रसाद प्रसिद्ध ता के अधिकारी।
विधि निषेघ नहिं दास अनन्त उत्कट व्रतधारी।

निष्कपट एवं अनन्य दास्य उनके सिद्धान्त का एक प्रधान अंश था। वे दास के लिये स्वामी के उच्छिष्ट से अधिक मूल्यवान अन्य कोई वस्तु नहीं मानते थे। भगवत उच्छिष्ट को, इसी लिये, उन्होंने महाप्रसाद- ‘स्वामी की परम प्रसन्नता’ का रूप माना है। उनकी दृष्टि में महाप्रसाद का त्याग किसी दिन भी एकादशी के दिन भी नहीं किया जा सकता। उधर श्रीमद्भागवत आदिक वैष्णव शास्त्र एकादशी व्रत पर बहुत भार देते हैं और शास्त्र- विधि को मानने वाले वैष्णवों के गले इस बात का उतरना बहुत कठिन था। हित-प्रभु के जीवन काल में ही इस बात का तीव्र विरोध हुआ था। ‘सेवक वाणी’ में, जिसकी रचना हितजी के निकुंज गमन के थोड़े दिन बाद ही हुई थी, इस विरोध का संकेत मिलता है। सेवक जी ने एक स्थान पर कहा है ‘हित प्रभु उन लोगों पर भी अनुग्रह रखते थे जो असहिष्णुता के कारण उनकी निंदा करते थे।’ [1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (सेवक वाणी- 12-2)

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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