हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 256

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
श्रीहरिराम व्‍यास (सं. 1549-1655)


समय आने पर श्री श्‍यामा ने व्‍यास सखी को अपने महल में बुलाया। व्‍यास जी के नेत्रों में रूप-माधुरी भर गई और वे महल में जाने के लिये तैयार हो गये। सब संत-महात्‍माओं को हाथ जोड़कर उन्‍होंने शरीर छोड़ दिया और नित्‍य-विहार में प्रविष्‍ट हो गये। व्‍यास जी के इष्‍ट श्रीराधावल्‍लभ और उनके गुरु श्रीहरिंवश थे, इस बात को व्‍यास जी के पदों से जान लेना चाहिए। इस बात को मेरे कहने की आवश्‍यकता नहीं है।

राधावल्‍लभ इष्‍ट, गुरु श्री हरिवंश सहाइ।
व्‍यास पदनि तैं जानियों हो कहा कहों बनाइ।।

'गुरु का माना हुआ शिष्‍य नहीं होता, शिष्‍य का माना हुआ गुरु होता है' इस बात को व्‍यास जी ने अपने पदों और साखियी में सरस ढंग से कहा है। उनके चरित्रों को में लिख नहीं सकता, वे समस्‍त ढंग से संसार में फैल रहे है।'

'गुरु को मान्‍यो शिष्‍य नहीं, शिख माने गुरु सोइ।
पद साखी करि व्‍यास नैं, प्रगट कही रस भोइ।।
हित हरिवंश प्रताप तैं, पाई जीवन-मूरि।
भगवत कहि लिख सकौं नहिं, रहे विश्‍व भर पूरि।।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रसिक अनन्‍य माल-व्‍यास चरित्र

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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