हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 255

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
श्रीहरिराम व्‍यास (सं. 1549-1655)


उन्‍होंने अपने अनेक जन्‍मों में अनेक मत देखे थे, अब गुरु-कृपा से उनको वे सब तुच्‍छ लगने लगे। व्‍या जी का एक पद है,

हरि बिनु छिन न कहूँ सुख पायौ।
दुख-सुख, संपति-विपति सहित हों स्‍वर्ग नर्क फिरि आयौ।।
पुत्र कलत्र बहुत विधि उपजे कपि लौं नाच नचायौ।
अबकै रसिक अनन्‍यनि कर गहि राधा रवन बतायो।। इत्‍यादि

बहुत वर्षो तक इस प्रकार रहने के बाद व्‍यास जी को हित प्रभु के वियोग का दुख सहन करना पड़ा।

बहुत बरस लो ऐसे रहे- श्रीहरिवंश विरह दुख सहे।।

श्रीहित जी के निकुंज-गमन के बाद व्‍यास जी ने बड़ा कष्‍ट पाया। इस पद के द्वारा उन्‍होंने उसको व्‍यक्‍त किया है:

हुनो रस रसिकनि को आधार।
बिनु हरिवंश कौन पे चलि है सरस प्रेम कौ भार।। इत्‍यादि

व्‍यास जी के बड़े पुत्र किशोरदास जब वृन्‍दावन आये तो स्‍वामी हरिदास जी उनको देखकर बड़े प्रसन्‍न हुए। व्‍यास जी ने उनको स्‍वामी जी का शिष्‍य करा दिया। इसीलिये वे स्‍वामी जी को मानते थे और कुंज-विहारी से प्रेम रखते थे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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