हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 250

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य


(जै श्री) हित हरिवंश रसिक ललितादिक-
लता-भजन-रंध्रनि अविलोकत।।
अनुपम सुख-भर भरित विवस अनु-
आनँद वारि कंठ दृग रोकत।।

चलहि किन माननि कुंज कुटीर।
तो विनु कुंवर कोटि बनिता जुत मथन मदन की पीर।
गदगद सुर, विरहाकुल, पुलकित, श्रवत विलोचन नीर।
क्वसि-क्वासि वृषभानु नंदिनी विलपत विपिन अधीर।।
बंशी विसिख, व्याल मालावलि, पंचानन पिक कीर।
मलयज गरल हुतासन मारुत शाखामृग-रिपु चीर।।
(जै श्री) हित हरिवंश परम कोमल चित चपल चली पिय तीरु।
सुनि भय भीत वज्र कौ पंजर सुरत सूर रणवीर।।[1]

प्रीति न काहु की कानि विचारै।
मारग अप मारग विथकित मन को अनुसरत निवारै।।
ज्‍यों सरिता सांवन जल उँमगत सनमुख सिंधु सिधारे।
ज्‍यों नादहिं मन दिये कुरगनि प्रगट पारधी मारे।।
(जै श्री) हित हरिवंश हिलग सारंग ज्‍यों सलभ शरीरहिं जारै।
नाइक निपुन नवल मोहन बिनु कौन अपनपौ हारे।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यह पद सूरदास जी के नाम से प्रचलित है।

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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