हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 244

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य


देखौ माई अवला के बल रास।
अति गज मत्त निरंकुश मोहन निरखि बँधे लट पाश।।
अबही पंगु भई मन की गति बिनु उद्यम अनियास।
तब की कहा कहौं जब पिय प्रति चाहति भ्रकुटि विलास।।
कच संजमन ब्याज भुज दरसति मुसकनि बदन विकास।
हा हरिवंश अनीति रीति हित कत डारत तन त्रास।।

नंद के लाल हरयौ मन मोर।
हौं अपनै मोतिन लर पोवति काँकरि डारि गयौ सखि भोर।।
वंक विलोकनि चाल छबीली रसिक शिरोमणि नंद किशोर।
कहि कैसे मन रहत श्रवण सुनि सरस मधुर मुरली की घोर।।
इन्दु गोविन्द वदन के कारण चितवन कौं भये नैन चकोर।
(जै श्रीः) हित हरिवंश रसिक रस जुवती।
तू लै मिलि सखि प्राण अकोर।।[1]

सुनि मेरौ बचन छबीली राधा-तै पायो रस-सिंधु अगाधा।
तू वृषभानु गोप की बेटी-मोहन लाल रसिक हँसि भेटी।।
जाहि विरंचि उमापति नाये-तापै तैं बन-फूल बिनाये।
जो रस नेति-नेतिश्रुति भाख्यौ-ताकौं तैं अधर-सुधा-रस चाख्यौ।।
तेरौ रूप कहत नहिं आवै- (जै श्री) हित हरिवंश कछुक जस गावै।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. यह पद सूरदास जी के नाम से प्रचलित है।

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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