साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य
देखौ माई अवला के बल रास।
अति गज मत्त निरंकुश मोहन निरखि बँधे लट पाश।।
अबही पंगु भई मन की गति बिनु उद्यम अनियास।
तब की कहा कहौं जब पिय प्रति चाहति भ्रकुटि विलास।।
कच संजमन ब्याज भुज दरसति मुसकनि बदन विकास।
हा हरिवंश अनीति रीति हित कत डारत तन त्रास।।
नंद के लाल हरयौ मन मोर।
हौं अपनै मोतिन लर पोवति काँकरि डारि गयौ सखि भोर।।
वंक विलोकनि चाल छबीली रसिक शिरोमणि नंद किशोर।
कहि कैसे मन रहत श्रवण सुनि सरस मधुर मुरली की घोर।।
इन्दु गोविन्द वदन के कारण चितवन कौं भये नैन चकोर।
(जै श्रीः) हित हरिवंश रसिक रस जुवती।
तू लै मिलि सखि प्राण अकोर।।[1]
सुनि मेरौ बचन छबीली राधा-तै पायो रस-सिंधु अगाधा।
तू वृषभानु गोप की बेटी-मोहन लाल रसिक हँसि भेटी।।
जाहि विरंचि उमापति नाये-तापै तैं बन-फूल बिनाये।
जो रस नेति-नेतिश्रुति भाख्यौ-ताकौं तैं अधर-सुधा-रस चाख्यौ।।
तेरौ रूप कहत नहिं आवै- (जै श्री) हित हरिवंश कछुक जस गावै।।
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