हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 240

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य


कुछ छंदों को छोड़कर श्रीहित हरिवंश की सम्पूर्ण रचना गेय-काव्य है। गीतों में अनुप्रासों की छटा से युक्त भाषा बहुत उपयुक्त रहती है। अनुप्रासों के विदग्ध उपयोग से शब्द संगीत की सृष्टि होती है और पदों की गेयता उभर आती है। जयदेव ने भी अनुप्रासों का चमत्कारपूर्ण उपयोग किया है। उन्होंने अपने कई गीतों में प्रत्येक चरण की पहिली दो यतियों पर अनुप्रास डाले हैं। जैसे,

घन चय रुचिरे, रचयतिं चिकुरे, तरिलत तरुणानने।
कुरबक कुसुमं, चपला सुषमं, रति पति मृग कानने।।[1]

पतति पतत्रे, विचलित पत्रे, शंकित भवदुपयानम्।
रचयति शयनं, सचकित नयनं, पश्यति तव पंथानम्।।[2]

इस प्रकार की अनुप्रास योजना श्रीहित हरिवंश को भी प्रिय है और उनके अनेक पदों में देखने को मिलती है। उदाहरण के लिये निम्नलिखित पद देखिये,

मंजुल कल कुंज देश, राधा हरि विशद वेष,
राका नभ कुमुद बंधु शरद जामिनी।
साँवल दुति कनक अंग, विहरत मिलि एक संग,
नीरद मणि नील मध्य लसत दामिनी।।[3]

मोहनी मोहन रंगे, प्रेम सुरंगे, मत मुदित कल नाचत सुधंगे।
सकल कला प्रवीन, कल्यान रागिनी लीन, कहत न बनै माधुरी अंग अंगे।।[4]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गी. गो. सप्तम सर्ग
  2. गी. गो. पंचम सर्ग
  3. हि. च. 11
  4. हि. च. 69

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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