हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 24

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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श्री हरिवंश-चरित्र के उपादान


श्री हित-हरिवंश किसके शिष्य थे?

श्री हित-हरिवंश उन विरल महापुरुषों में थे जो संसार को नवीन ‘दर्शन’ प्रदान करने आते हैं। उनकी ‘रस-रीति’ सर्वथा नवीन एवं मौलिक रस-सिद्धांत है। प्रेमा भक्ति की उनके द्वारा की गई व्याख्या एवं उस व्याख्या के अनुकूल लीला का विस्तार उनकी अपनी चीज है जो उनकी प्रत्यक्ष अनुभूति पर आधारित है। बाल्य-काल से ही वे श्रीराधा-पक्षपाती थे और इस पक्षपात को उज्ज्वल रस के निरतिशय आस्वाद के लिये आवश्यक मानते थे। देववन में ही उन्होंने ‘राधा-पद्धति’ का प्रकाश एवं प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया था और इसी कार्य के लिये अठारह वर्ष वृन्दावन में निवास किया था। इन बातों को न जानने के कारण अनेक लोग उनका आरम्भ में किसी अन्य सम्प्रदाय का शिष्य होना लिख देते हैं। इन लोगों का ज्ञान चैतन्य संप्रदाय के उन बंगला-ग्रंथों पर आधारित है, जिनमें श्री हित-हरिवंश का अति संक्षिप्त परिचय दिया हुआ है। इन ग्रन्थों के अनुसार श्रीहित-हरिवंश पहिले गोपाल भट्ट जी के शिष्य थे और बाद में उनको श्री राधा से मंत्र मिल गया था। मंत्र मिलने पर उन्होंने एक स्वतन्त्र सम्प्रदाय की स्थापना कर दी थी।

हम देख चुके हैं कि सोलहवीं शताब्दी में श्रीकृष्ण किंवा राधा-कृष्ण का उपास्य मानने वाली तीन संप्रदायें विभिन्न दिशाओं से आकर ब्रज में केन्द्रित हुई थीं। वल्लभ-संप्रदाय ने अपना केन्द्र गोकुल और गोर्वधन को बनाया। चैतन्य-संप्रदाय एवं राधावल्लभीय-संप्रदाय का केन्द्र वृन्दावन बना। यह दोनों रसोपासक संप्रदायें थीं, किन्तु इनका प्रेम-सम्बंधि दृष्टिकोण एक दूसरे से सर्वथा भिन्न था।

श्री रूप गोस्वामी ने ‘उज्ज्वल नीलमणि’ के ‘हरिवल्लभा’ प्रकरण में गोपियों के ‘बिपक्ष’ यूथों में परस्पर प्रखर द्वेष की स्थिति बतलाई है। इसके बाद ग्रंथकार को उन लोगों का स्मरण आ गया है जो हरि-प्रिया गोपीजनों में द्वेषादि भावों को अनुचित मानते हैं। वे कह उठते हैं कि इस प्रकार कहने वाले लोग ‘अपूर्व रसिक’ हैं; अदभुत रसिक हैं!

हरि प्रियजने भावा द्वेषाया नोचिता इति। ये व्याहरन्ति ते ज्ञेया अपूर्वरसिका क्षित्तौ।।[1]

अठारहवीं शती में होने वाले श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती ने इस श्लोक की टीका करते हुए ‘अपूर्व रसिका,’ का अर्थ ‘अ’ पूर्व में है जिनके ऐसे रसिक-अरसिक बतलाया है (अकार: पूर्व: येषांते अरसिका इत्यर्थ:) संभवत: उस समय ऐसे ‘अपूर्व रसिक’ राधा-वल्लभीय लोग ही थे जो सब गोपियों को श्रीराधा के अनुग़त मानते थे और उनमें से किसी को स्वपक्षा या विपक्षा नहीं मानते थे। श्री हित हरिवंश ने राधा-सुधा-निधि स्त्रोत में श्री राधा का अनुधावन करती हुई ब्रज-किशोरी-गण की घटा की भावना की है-

श्री राधामनुधावतीं ब्रजकिशोरीणां घटां भावये।[2]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उ.नी.पृ. 254
  2. रा.सु. 96

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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