हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 234

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य


यह देखा गया है कि प्रस्तुत रूप के वर्णनों के लिये विस्तृत वर्ण्य विषय उपयुक्त रहता है। संकीर्ण वस्तु के वर्णन में आलंकारिक शैली अधिक उपयोगी होती है। सूरदास जी ने, इसीलिये, अपने पदों में इसको अपनाया है। श्रीहित हरिवंश का क्षेत्र सूरदास जी से भी अधिक संकीर्ण है, उनका विषय केवल निकुंज-लीला है। इस अत्यन्त छोटे क्षेत्र में निरन्तर नवीन रूप-विधान करना साधारण प्रतिभा का काम नहीं है। ‘हित चतुरासी’ में क्षेत्र-विस्तार की कमी को वस्तु के कौशल पूर्ण अंग-विन्यास एवं व्यंजना व्यापार के उपयोग द्वारा पूरा किया गया है। थोड़े से उपदेशात्मक छन्दों को छोड़कर इन सम्पूर्ण पदों का वर्ण्य श्रीराधा का रूप-गुण माधुर्य ही है। चाहे सुरत का वर्णन हो चाहे मान का, चाहे नित्य लीला का वर्णन हो चाहे नैमित्तिक का, सर्वत्र श्रीराधा का उत्कर्ष व्यंजित किया गया है। इस व्यंजना में श्रीहित हरिवंश को सबसे बड़े सहायक श्रीराधा के सर्वस्व श्री श्यामसुन्दर हैं। वे रसिक शेखर हैं। परम प्रेमवती समस्त व्रज-सीमंतनियाँ उनके कृपा-कटाक्ष के लिये लालायित रहती हैं। किन्तु वे उनकी रसिकता की कसौटी पर पूरी नहीं उतरतीं। एक मात्र श्रीराधा ही, इन रसिक शेखर के हृदय को पूर्ण रूप से आप्यायित करती हैं। श्रीराधा के अद्भुत मोहक रूप ने इनको सदैव के लिये अपना मधुप बना लिया है।

श्रीराधा के सौंदर्य-वर्णन में, श्रीहित हरिवंश, इस सौंदर्य के अनन्य मधुप श्याम-सुंदर और उनके रसास्वाद का मार्मिक उल्लेख करते चलते हैं। मधुप के ऊपर उस सौंदर्य के प्रभाव का वर्णन करके या उस मधुप के आस्वाद की रीति का वर्णन करके वे श्रीराधा के रूप-गुण-माधुर्य की व्यंजना करते हैं। ऊपर उद्धृत पद में श्रीराधा के रूप-माधुर्य का सुन्दर वर्णन करने के बाद वे कहते हैं ‘यह रसिक सिरमौर राधा रमण की जोड़ी हैं,- रसिक सिरमौर राधारमन जोरी’। रसिक-शेखर की जोड़ी होना सामान्य बात नहीं है। इस कथन से श्रीराधा के सौंदर्य के असाधारण आकर्षण की व्यंजना हो जाती है।

एक और छोटा-सा पद देखिये,

आजु नीकी बनी राधिका नागरी।
व्रज जुवति जूथ में रूप अरु चतुरई, शील श्रृंगार गुन सवनि तें आगरी।।
कमल दक्षिण भुजा वाम भुज अंससखि गावती मिलिसरस मधुर सुर रागरी।
सकल विद्या विदित रहसिंहरिवंश हित मिलत नव कुंज वर श्याम बड़भागरी।।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हि. च. 25

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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