साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य
इन पदों का भाव-पक्ष संभोग श्रृंगार पर आश्रित है। संभोग श्रृंगार से सम्बन्धित भावों के वर्णन में सुरुचि और संयम नितांत आवश्यक होते हैं। इस श्रृंगार की सर्वांगीण अभिव्यक्ति के लिये कवि को उन वर्णनों में प्रवृत्त होना पड़ता है जो ‘खुले वर्णन’ कहलाते हैं। श्रीहित हरिवंश के कई पदों में इस प्रकार के खुले वर्णन मिलते हैं किन्तु सुरुचि और सुसंस्कृरिता की गहरी छाप सर्वत्र दिखलाई देती है। इस प्रकार के वर्णनों में उनकी भाषा अधिक ओजपूर्ण और शब्द-विन्यास अधिक गुंफित बन जाता है। संभोग श्रृंगार के इन वर्णनों को देखिये,
परिरंभव विपरित रति वितरित सरस सुरत निज केलि।
इन्द्रनील मणिमय तरु मानौं लसत कनक की बेलि।।[1]
सुरत नीवी-निबंध हेत प्रिय मानिनी,
प्रिया की भुजनि में कलह मोहन मची।
सुभग श्रीफल उरज पानि परसत,
रोष हुंकार गर्व दृग-भंगि भामिनि लची।।
कोक कोटिक रभसि रहसि हरिवंश हित,
विविध कल माधुरी किमपि नाहिन बची।
प्रनय मय रसिक ललितादि लोचन चषक,
पिवत मकरंद सुख राशि अंतर सची।।[2]
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