हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 23

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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श्री हरिवंश-चरित्र के उपादान


इस ग्रन्थ का एक प्रकाशित संस्करण बंगाक्षरों में प्राप्त है। उसमें आदि-अंत में श्री चैतन्य वंदना का एक-एक श्लोक लग रहा है एवं रचयिता के स्थान पर प्रबोधानंद सरस्वती का नाम है। एगलिंग के इंडिया ऑफिस कैटलोग में, औफ्रैट के बोडेलियन कैटलोग में एवं हरप्रसाद शास्त्री के डैस्क्रिप्टिव कैटलोग में इस ग्रंथ की जितनी प्रतियों का परिचयात्मक उल्लेख है उनमें से किसी मेें, आदि अन्त के ये श्लोक नहीं मिलते एवं सब में इसका रचयिता श्री हित हरिवंश को लिखा गया है। इसकी अनेक प्राचीन प्रतियाँ राधावल्लभीय सम्प्रदाय के अनुयायिओं के पास हैं। उनमें से लेखक की देखी हुई सबसे प्राचीन प्रति सं. 1712 की है। इस प्रति के प्रथम एवं अंतिम पत्रों में इस प्रति के लेखक ने लिखा है- ‘संवत 1712 वर्षे जेठ मासे पूर्णमास्यां श्री वृन्दावन-मध्ये लिखितं राजाबाई केन, दामोदर दास गुजराती पठनार्थ, देववन की प्रति लिखी है, प्राचीन पुस्तकं याट्टशमिति।। या प्रत्य में जो पाठ है सो देववन की तीन प्रत्य देख कर लिख्यौ है, सो और प्रत्य देख कर पाठ मत फिरायो। यह बहुत वर्षन कौ पाठ पुरातन है। याकौ अर्थ बहुत कठिन है, श्रीहित जू कृपा करें तब आवै। श्री हित जू की कृपा से यह पाठ लिख्यौ है। एक सौ बासठ के आगे की जो श्लोक एक मत्कंठे किं नखर शिखया’ यामें नहीं है सो ओ तीनों प्रत्य मां नहीं हो। सो आगे पीछे के संबंध में नहीं लगेै है। सो काहू की धरयौ है तातें या रस सों मिलत नांही, या समझनौ।

इससे यह मालूम होता है कि सं. 1712 में इस ग्रन्थ की प्राचीन प्रतियाँ देववन में वर्तमान थीं और वहीं प्रामाणिक मानी जाती थीं। राधावल्लभीय इतिहास में इस ग्रन्थ को देववन की रचना बतलाया गया है और यह बात इस लेख से पुष्ट होती है। हम देख चुके हैं कि श्री हित हरिवंश सं.1560 में वृन्दावन आये थे, अत: इस ग्रन्थ की रचना इस काल के काफी पूर्व हो चुकी थी। ग्रन्थ की अन्तरंग परीक्षा से यह निष्कर्ष निकलता है कि इसके अधिकांश श्लोकों की रचना देववन में हुई है। कुछ श्लोक वृन्दावन आने के बाद बने हैं और दोनों को मिलाकर ग्रन्थ का संकलन हुआ है।

राधावल्लभीय साहित्य में ‘राधा-सुधिनिधि’ की छोटी-बड़ी अनेक टीकायें प्राप्त हैं जिनमें से कई अठारहवीं शताब्दी की हैं। श्री हित हरिवंश के द्वितीय पुत्र श्री कृष्णचंद्र गोस्वामी का एक ‘उप-राधा-सुधानिधि’ नामक ग्रन्थ भी प्राप्त है जिसकी रचना सत्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्धं की है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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