हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 229

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य


आजु नीकी बनी राधिका नागरी।
व्रज-जुवति-जूथ में रूप अरु चतुरई, शील, श्रृंगार, गुन सवनितें आगरी।।

अति नागरि वृषभनु किशोरी।
सुनि दूतिका चपल मृग नैनी आकर्षत चितवत चित गोरी।।

नागरता की राशि किशोरी।
नव नागर कुल मौलि साँवरौ बरबस कियौ चितं मुख मोरी।।

यह नागरता, विचित्र प्रकार से, श्रीहित हरिवंश की वाणी का भी प्रमुख गुण बन गई है। उनके पदों में एक अद्भुत सुसंस्कारिता और रस-सिक्त आभिजात्य के दर्शन होते हैं। क्या शब्दों का चुनाव और क्या भावों का उपस्थापन, सर्वत्र सुरुचि और दाक्षिण्य का प्रयोग मिलता है। अपने पदों की ‘कोमल-कांत-पदावली’ के कारण श्रीहित हरिवंश हिन्दी के जयदेव कहलाते हैं। कोमल-कांत-पदावली का आधार सुरुचि पूर्ण शब्द-चयन होता है। इन पदों की संस्कृत-बहुल भाषा में संस्कृत शब्दों का तो सुन्दर चयन किया ही गया है, लोक भाषा के भी उनही शब्दों का उपयेाग हुआ है जो कोमलता एवं वजन में संस्कृत शब्दों से किसी तरह कम नहीं हैं। उदाहरण के लिये, ‘मधुरितु पिकशाव नूत-मंजरी चखी’ इस वाक्य में लोक भाषा का एक ही शब्द ‘चखी’ प्रयुक्त है किन्तु वह संपूर्ण वाक्य के प्रभाव में महत्त्वपूर्ण योग दे रहा है। वाक्य के प्रथम पाँच संस्कृत शब्दों की योजना जितनी सुरुचि पूर्ण है, उतना ही इनके साथ ‘चखी’ शब्द का प्रयोग भी सुन्दर है। इसी प्रकार निम्नलिखित पंक्तियों में ‘बोलनि’ और ‘बिनु-मोलनि’ शब्द इनके भूषण बने हुए हैं।

निर्तनि भ्रकुटि वदन अंबुज मृदु सरस हास मधु बोलनि।
अति आसक्त लाल अलि लंपट बस कीने बिनु मोलनि।।[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हि. च. पद 34

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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