हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 228

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य


‘हित चतुरासी’ का पद हैः-

देखौ माई सुन्दरता की सींवा।
व्रज-नव-तरुणि-कदंव-नागरी निरखि करत अघग्रीवा।।
जो कोउ कोटि कलप लगि जीवै रसना कोटिक पावै।
तऊ रुचिर वदनारविंद की शोभा कहत न आवै।।
देव-लोक भूलोक रसातल सुनि कवि कुल मति डरिये।
सहज माधुरी अंग-अंग की कहि कासौं पटतरिये।।
जैश्री हित हरिवंश प्रताप रूप गुण, वय, बल श्याम उजागर।
जाकी भ्रू विलास वस पसुरिव दिन विथकित रस-सागर।।[1]

इस राधा-पक्षपात के कारण हिताचार्य द्वारा स्थापित रस-रीति में एक अद्भुत स्वाभाविकता आ गई है। श्रीहित हरिवंश के पदों में नारीत्व अपने स्वाभाविक आस्वाद्य रूप में उपस्थित हुआ है। कृष्ण-कथा के जिस अनुरोध से श्रीकृष्ण का भोग्य रूप भक्त-कवियों ने स्वीकार किया था वह, श्रीराधा के स्वरूप के विकास के साथ, बलहीन प्रतीत होने लगा। श्रीहित हरिवंश की वाणी में श्रीराधा का भोग्य रूप संपूर्णतया स्थापित हो गया और उसने एक नई रसरीति को जन्म दे दिया।

हिताचार्य श्रीराधा के नागरी रूप के प्रशंसक हैं, गायक हैं। उन्होंने अपने अनेक पदों में श्रीराधा का इसी रूप में स्मरण किया है तथा कई पदों में उनकी नागरता का विशद वर्णन किया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हि. च. 52

संबंधित लेख

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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