हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 225

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य


इस पद की प्रथम चार तुकों में सुरत की तरंग, अगली तीन तुकों में भ्रम की तरंग, इसके बाद की दो तुकों में मान की तरंग और अंतिम तुक में पुनः सुरत-तरंग के दर्शन होते हैं। इस पद में प्रेम-घटना के अतिरिक्त अन्य र्को घटना नहीं है। श्री वृन्दावन की एक ही चित्र-विचित्रमयी नित्य- नूतन पृष्ठभूमि पर यह लीलायें नित्य उद्भासित होती रहती हैं। भक्ति-साहित्य के समीक्षकों ने इन लीलाओं की परिधि बहुत छोटी होने की शिकायत की है। किन्तु इस आरोप को इसलिये ठीक नहीं माना जा सकता, कि यह सम्पूर्ण साहित्य एक विशिष्ट रस-रीति से बँधा हुआ है और इसका उद्देश्य केवल इस रस-रीति का निर्वाह करना है। साहित्य समीक्षा का यह मोटा-सा सिद्धान्त है कि किसी भी साहित्य की परख करते समय यह देखना चाहिये कि वह अपनी बात को कहने में कहाँ तक सफल हुआ है और उसके इस कार्य से सौंदर्य की निष्पत्ति हुई है या नहीं। इस दृष्टि से देखने से अनेक राधावल्लभीय रसिकों की कृतियाँ उत्तर साहित्य की कक्षा में आ जाती हैं। इस साहित्य में वर्णित प्रेम का स्वरूप हमारे परिचित रूप से थोड़ा भिन्न है, अतः उसके आस्वाद में कठिनाई होना तो स्वाभाविक ही है।

राधावल्लभीय सम्प्रदाय का साहित्य बहुत विपुल है। काव्य रचना यहाँ की साधना का अंग रही है। प्रत्येक उपासक ने प्रेम-विह्वल स्वर से यही याचना की है,

नेकु कृपा की कोर लहौं तो उमँगि ऊँमगि जस गाउँ।
नेह भरी नव-नागरी के रस भाइनि कौं दुलराऊँ।।

परिणामतः अपने इतिहास के प्रत्येक युग में इस साहित्य की वृद्धि होती रही है और अब भी हो रही है। इनमें अनेक रचनायें ऐसी हैं जिनका साहित्यिक दृष्टि से अधिक मूल्य नहीं है किन्तु साफ-सुथरी और रस-बहुल कृतियों की संख्या भी बहुत काफी है। पिछले दिनों इस साहित्य की जो थोड़ी-सी खोज हुई है उससे पता चलता है कि अनेक कवियों की सम्पूर्ण रचनायें अप्राप्त हो गई हैं और अनेकों की कुछ रचनायें ही मिल रही हैं। ध्रुवदास जी ने अपनी ‘भक्त नामावली’ में वैष्णवदास, गोपालदास, खरगसेन, गंगाबाई और यमुनाबाई की वाणियों का उल्लेख किया है, किन्तु इनमें से एक की भी रचनायें प्राप्त नहीं हैं। ऐसे वाणीकारों की संख्या भी बहुत अधिक है जिनके कुछ पद ही प्राप्त होते हैं।

चार शताब्दियों में फैले हुए इस विशाल साहित्य का परिचय देने के लिये इसको चार काल-विभागों में बाँट लेना सुविधाजनक होगा। प्रत्येक विभाग में बीसियों वाणीकारों के नाम और उनके पद प्राप्त हैं किन्तु यहाँ कुछ का ही परिचय दिया जा रहा है। इस साहित्य का आरंभ संवत 1590 के पूर्व मानना चाहिये। संवत 1591 में हितप्रभु के एक पद को सुनकर श्री हरिराम व्यास उनकी ओर आकृष्ट हुए थे, अतः प्रथम काल-विभाग को हम ‘श्रीहित हरिवंश काल’ कहेंगे, जो संवत 1590 से 1650 तक माना जा सकता है। दूसरा काल-विभाग ‘श्री ध्रुवदास काल’ कहा जा सकता है। इसकी अवधि सं. 1650 से सं. 1775 तक माननी चाहिये। यह इस साहित्य का सबसे अधिक समृद्ध काल है और श्री ध्रुवदास इस काल के सबसे बड़े कवि हैं। तीसरा विभाग ‘श्रीहित रूप लाल काल’ कहा जा सकता है। यह सं. 1775 से सं. 1875 तक रहा था। चौथे एवं अंतिम विभाग को ‘अर्वाचीन काल’ कह सकते हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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