श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य
राधावल्लभीय सम्प्रदाय का साहित्य बहुत विपुल है। काव्य रचना यहाँ की साधना का अंग रही है। प्रत्येक उपासक ने प्रेम-विह्वल स्वर से यही याचना की है, नेकु कृपा की कोर लहौं तो उमँगि ऊँमगि जस गाउँ। परिणामतः अपने इतिहास के प्रत्येक युग में इस साहित्य की वृद्धि होती रही है और अब भी हो रही है। इनमें अनेक रचनायें ऐसी हैं जिनका साहित्यिक दृष्टि से अधिक मूल्य नहीं है किन्तु साफ-सुथरी और रस-बहुल कृतियों की संख्या भी बहुत काफी है। पिछले दिनों इस साहित्य की जो थोड़ी-सी खोज हुई है उससे पता चलता है कि अनेक कवियों की सम्पूर्ण रचनायें अप्राप्त हो गई हैं और अनेकों की कुछ रचनायें ही मिल रही हैं। ध्रुवदास जी ने अपनी ‘भक्त नामावली’ में वैष्णवदास, गोपालदास, खरगसेन, गंगाबाई और यमुनाबाई की वाणियों का उल्लेख किया है, किन्तु इनमें से एक की भी रचनायें प्राप्त नहीं हैं। ऐसे वाणीकारों की संख्या भी बहुत अधिक है जिनके कुछ पद ही प्राप्त होते हैं। चार शताब्दियों में फैले हुए इस विशाल साहित्य का परिचय देने के लिये इसको चार काल-विभागों में बाँट लेना सुविधाजनक होगा। प्रत्येक विभाग में बीसियों वाणीकारों के नाम और उनके पद प्राप्त हैं किन्तु यहाँ कुछ का ही परिचय दिया जा रहा है। इस साहित्य का आरंभ संवत 1590 के पूर्व मानना चाहिये। संवत 1591 में हितप्रभु के एक पद को सुनकर श्री हरिराम व्यास उनकी ओर आकृष्ट हुए थे, अतः प्रथम काल-विभाग को हम ‘श्रीहित हरिवंश काल’ कहेंगे, जो संवत 1590 से 1650 तक माना जा सकता है। दूसरा काल-विभाग ‘श्री ध्रुवदास काल’ कहा जा सकता है। इसकी अवधि सं. 1650 से सं. 1775 तक माननी चाहिये। यह इस साहित्य का सबसे अधिक समृद्ध काल है और श्री ध्रुवदास इस काल के सबसे बड़े कवि हैं। तीसरा विभाग ‘श्रीहित रूप लाल काल’ कहा जा सकता है। यह सं. 1775 से सं. 1875 तक रहा था। चौथे एवं अंतिम विभाग को ‘अर्वाचीन काल’ कह सकते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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