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साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य
श्री चैतन्य-सम्प्रदाय का भक्ति-साहित्य प्रधानतया संस्कृत और बँगला में है। इस सम्प्रदाय के अनुयायी एवद्देशीय रसिक संतों ने व्रज भाषा में जिस छोटे से साहित्य की सृजना की है उसमें से एक बड़े अंश में राधावल्लभीय रस-पद्धति से राधा कृष्ण के विहार का वर्णन हुआ है। राधावल्लभीय रस पद्धति के तीन प्रसिद्ध एवं मौलिक तथ्य हैं,- श्रीराधा की प्रधानता, राधा और कृष्ण में समान प्रीति की स्थिति एवं एक ही काल में संयोग और वियोग का अनुभव। चैतन्य-सम्प्रदाय का अधिकांश व्रज-भाषा साहित्य इन तीन तथ्यों को आधार बना कर चला है। इस सम्प्रदाय के व्रज-भाषा कवियों में प्रथम नाम रामराय प्रभु का आता है। यह श्री नित्यानन्द प्रभु के शिष्य थे और इनके पदों का संग्रह ‘आदिवाणी’ के नाम से प्रकाशित हो चुका है। इनकी वाणी के प्रथम पद में और ‘हित चतुरासी’ के प्रथम पद में अद्भुत साम्य दिखलाई देता है। ‘हित चतुरासी’ का प्रथम पद हैः-
जोई-जोई प्यारौ करै सोई मोहि भावै,
भावै मोहि जोई सोइ-सोई करैं प्यारे।
मोकों तौ भावती ठौर प्यारे के नैननि में,
प्यारौ भयौ चाहै मेरे नैननि के तारे।।
मेरे तन-मन प्रान हूँ तें प्रीतम प्रिय,
अपने कोटिक प्रान प्रीतम मोसौं हारे।
(जयश्री) हित हरिवंश हंस-हंसनी साँवल-गौर,
कहौ कौन करै जल-तरंगनि न्यारे।।
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