साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य
श्रीधर स्वामी की दृष्टि को अपनाने वाले बंगाली महात्माओं ने अपनी टीकाओं में रास पंचाध्यायी के उन शब्दों को पकड़ा है जो श्रीराधा की ओर संकेत करते हैं। श्री वल्लभाचार्य की सुबोधिनी और श्रीधर स्वामी की टीका में इस प्रकार का प्रयास दिखलाई नहीं देता। श्रीवल्लभाचार्य ने श्री राधा को अपने ग्रन्थों में कहीं महत्त्व नहीं दिया और न उनके द्वारा की हुई श्रीराधा की कोई स्तुति ही प्राप्त है। किंतु उनके पुत्र गोस्वामी विट्ठलनाथजी ने और उनके द्वारा स्थापित अष्टछाप के कवियों ने श्री राधाकृष्ण के प्रेम का जी भर कर गान किया है। श्रीराधा की स्तुति में गोस्वामी विट्ठलनाथ जी कृत चार स्वतंत्र रचनायें प्राप्त हैं जिनमें उन्होंने श्रीराधा की कृपा-प्राप्ति के लिये विकल प्रार्थना की है और उस कृपा को अपने भक्ति-सम्प्रदाय की उन्नति के लिये परम आवश्यक बतलाया है।
कृपयति यदि राधा बाधिताशेष बाधा,
किमु परम वरिष्ठं पुष्टिमर्यादयोर्मे।
वार्ता के अनुसार, सूरदास जी के प्रयाग-काल में श्री विट्ठलनाथ ने उनसे जब यह पूछा कि इस समय तुम्हारी चित्त की वृत्ति कहाँ है तो वह उन्होंने श्रीराधा में स्थित बतलाई थी। उनका उस समय कहा हुआ पद यह है।
बलि बलि बलि हो कुँवरि राधिका नंद सुवन जासों रति मानी।
वे अति चतुर तुम चतुर शिरोमनि प्रीति करी कैसे होत है छानी।।
वे जु धरत तन कनक पीत पट सोतौ सब तेरी गति डानी।
तैं पुनि श्याम सहज वह शोभा अंबर मिस अपने उर आनी।।
पुलकित अँग अब ही ह्वै आयो निरखि देखि निजु देह सयानी।।
सूर सुजान सखी के बूझे प्रेम प्रकास भयौ विहँसानी।।
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