हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 215

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य


ब्रह्मादि जय संरूढ़ दर्प कंदर्प दर्पहा।
जयति श्रीपति गोपी रास मंडल मंडनः।।

श्रीधर स्वामी की दृष्टि में रासलीला वह काम-क्रीडा है जिसको देखकर स्वयं कामदेव लज्जित हो जाता है, कामदेव को लज्जित करना ही इस काम-क्रीडा का प्रयोजन है। श्री चैतन्य को श्रीधर स्वामी का यह मत मान्य था और उनके अनुयायी वंगीय गोस्वामी गण ने रासलीला को शुद्ध श्रृंगार-लीला ही माना है। इस लीला में श्रीकृष्ण और गोपियों का सम्बन्ध केवल भगवान और भक्त का सम्बन्ध नहीं है, नायक और नायिका का सम्बंध है। इन महानुभावों ने रासलीला का विवेचन श्रृंगार रस की परिपाटी से किया है और इस लीला में प्रगट होने वाले भावों का वर्गीकरण भी उसी परिपाटी के अनुकूल किया है। सूरदास जी ने श्री वल्लभाचार्य एवं श्रीधर स्वामी के रास लीला सम्बन्धी दृष्टिकोणों का सामंजस्य अपने एक विशिष्ट दृष्टिकोण में किया है। महाकवि होने के नाते मौलिकता उनका स्वाभाविक धर्म है। यह मौलिकता भावों और उनकी अभिव्यक्ति तक ही सीमित नहीं है, उनका दृष्टिकोण भी मौलिक है।

रासलीला में एक ही कृष्ण-प्रेम अनंत गोपियों में प्रतिष्ठित है। सब गोपियाँ समान रूप से श्रीकृष्ण को परम कांत मानती हैं। इसमें गोपियों की ओर से तो प्रेम की सहज एक-निष्ठता का निर्वाह हो जाता है किन्तु श्रीकृष्ण का प्रेम अनेक-निष्ठ ही रहता है। रास आरंभ होते ही श्रीकृष्ण अनेक रूप धारण करके प्रत्येक गोपी के साथ हो जाते हैं और इस प्रकार रास काल में श्रीकृष्ण का प्रेम भी एक-निष्ठा बन जाता है। दोनों ओर से प्रेम के एक-निष्ठ बनते ही उसको वह लास्यमयी गति प्राप्त हो जाती है जिसका नाम ‘रास’ है। प्रेम का स्वभाव गत धर्म एक-निष्ठता है। दोनों और से एक-निष्ठ बनने पर ही प्रेम उज्ज्वल, स्थायी और गंभीर बनता है। रासलीला पर अपनी प्रेमोपासना आधारित करने वाले भक्त गण इस बात को भली-भाँति समझते थे। ‘रासपंचाधयी’ में प्रेम के अनेक-निष्ठ और एक-निष्ठ दोनों रूप दिखलाई देते हैं। वहाँ एकान्त सौभाग्यशालिनी एक गोपी का उल्लेख हुआ है जिसको लेकर श्रीकृष्ण सब गोपियों के मध्य से अंतर्धान हो गये थे। भागवत में इस गोपी का स्पष्ट नामोल्लेख नहीं है। भक्तों ने, कृष्णलीला का वर्णन करने वाले अन्य पुराणों की सहायता से, इस गोपी का नाम ‘राधा’ बतलाया है। श्रीकृष्ण के अनेक-निष्ठ प्रेम को एक-निष्ठ बनाने वाली यही ‘श्रीराधा’ है। प्रारंभ में राधा भी अन्य गोपियों के समान ही एक गोपी हैं जिनके प्रति श्रीकृष्ण का कुछ अधिक आकर्षण है। धीरे-धीरे वे अन्य गोपियों से भिन्न बनकर श्रीकृष्ण के अधिक निकट आ जाती हैं। श्रीराधा का प्रेम इस प्रकार का है कि उससे विवश बनकर श्रीकृष्ण को चारों ओर से सिमिटना पड़ता है। श्रीराधा कान्ता-शिरोमणि बन जाती हैं और अन्य गोपियाँ उनकी सखी बनकर अपने को धन्य मानने लगती है। गोपी कृष्ण से राधा कृष्ण का महत्त्व अधिक बढ़ जाता है और इन दोनों को लेकर ही अधिकांश श्रृंगार-लीलाओं की रचना होने लगती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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