श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य
सर्वोत्तमा हरे लीला वेणु नाद पुर:सरा। श्री वल्लभाचार्य के लीला-सम्बन्धी सिद्धान्त के उपरोक्त विवरण से निम्नलिखित बातें स्पष्ट होती हैं:- (1) श्रीमद्भागवत में वर्णित कृष्ण-लीलाओं में श्रृंगार लीला फल रूपा है। (2) श्रृंगार लीला का प्रयोजन गोपियों को भजनानंद किंवा स्वरूपानंद का दान करना है। (3) फलरूपा लीलाओं में ‘वेणु-नाद पुरःसरा’ और ‘विप्रयोगात्मिका’ लीला परमफल रूपा और सर्वोत्तमा है। यह भगवद्-गुण गानात्मिका होती है। सूरदास जी के श्रृंगार लीला सम्बन्धी पदों को देखने से स्पष्ट मालुम होता है कि वे उपरोक्त सिद्धान्त का कुछ अंशों में ही अनुसरण करते हैं। श्री वल्लभाचार्य की भाँति वे श्री श्रृंगार लीला को फल रूपा मानते हैं किन्तु उनकी भाँति गुणात्मिका नाम-लीला को रूप-लीला से अधिक महत्त्व नहीं देते। उन्होंने नाम लीला का खूब गान किया है और उससे भी अधिक रूप-लीला का किया है। उन्होंने विरह-व्याकुल कंठ से श्रीकृष्ण के अद्भुत प्रेम-गुणों का वर्णन किया है और साथ ही संभोग श्रृंगार की विविध क्रीडाओं का मार्मिक चित्रण भी किया है। उनके श्रृंगार केलि के वर्णन संयोग-श्रृंगार के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। श्री वल्लभाचार्य की दृष्टि में गोपियों और श्रीकृष्ण का प्रेम भक्त और भगवान के बीच का प्रेम है। उन्होंने, इसीलिये गोपियों को सात्त्विक, राजस और तामस के भेदों में विभक्त किया है। सूरदास में इस प्रकार के वर्गीकरण की कहीं व्यंजना नहीं हुई है। अतः सूरदास जी के श्रृंगारी पदों को समझने के लिये हमको अन्यत्र दृष्टि डालनी होगी। श्रीवल्लभाचार्य से लगभग दो शताब्दी पूर्व श्रीधर स्वामी ने श्रीमद्भागवत पर ‘भावार्थ दीपिका’ नामक एक संक्षिप्त टीका लिखी थी। इस टीका में उन्होंने रासलीला का प्रयोजन भगवान के द्वारा उस कंदर्प के दर्प का नाश करना बतलाया है जो ब्रह्मादि को विजित करके दर्पित हो रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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