हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 213

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य


सुबोधिनी में दशम स्कंध के प्रथम चार अध्यायों को जन्म-प्रकरण और पाँचवे अध्याय से बत्तीसवे तक के 28 अध्यायों को तामस-प्रकरण कहा गया है। तामस-प्रकरण के चार विभाग हैं- प्रमाण, प्रमेय, साधन और फल। श्री वल्लभाचार्य दशम स्कंध में 90 अध्यायों के बजाय 87 अध्याय मानते हैं। वस्त्र-हरण-लीला से सम्बन्धित तीन अध्यायों- तेरह, चौदह और पन्द्रह- को उन्होंने प्रक्षिप्त बताया है। तामस-प्रकरण के फल विभाग में सात अध्याय हैं जो सुबोधिनी के अनुसार 26 से 32 तक और भागवत की प्रचलित पुस्तकों में 29 से 35 अध्याय तक हैं। इन सात अध्यायों में 29 से 33 अध्याय तक रासलीला का गान है, चौतीसवें अध्याय में अजगर के मुख से नंद को छुड़ाने की कथा है और पैतीसवाँ अध्याय ‘युगलगीत’ कहलाता है, जिसमें गोचारण के लिये वन में गये हुए श्रीकृष्ण का गोपियों ने गुण-वर्णन किया है। फल-प्रकरण में वर्णित लीलाओं का प्रयोजन श्री वल्लभाचार्य ने, व्रज गोपिकाओें को ब्रह्मानंद से निकाल कर भजनानंद में लगाना बतलाया है।

ब्रह्मानंदात्समुद्धृत्य भजनानंद योजने।
लीला या युज्यते सम्यक् सा तुर्ये विनिरूप्यते।।[1]

भजनानंद भगवत स्वरूपात्मक है अतः भजनानंद का दान स्वरूपानंद का दान है। श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ रमण करते हुए उनको भजनानंद किंवा स्वरूपानंद का दान किया था। इस रमण या लीला को श्री वल्लभाचार्य ने दो प्रकार बतलाया है- बाह्य और आन्तर। जिस प्रकार इस सम्पूर्ण प्रपंच को ‘नाम-रूपे व्याकरवाणि’ श्रुति दो प्रकार का-नामात्मक और रूपात्मक बतलाती हैं, उसी प्रकार भगवान की लीला के भी दो भेद हैं- नाम लीला और रूप लीला। जिसमें प्रभु का विरह-जनित गुण-गान हो वह नाम लीला कहलाती है और जिसमें केवल उनका रमण हो वह रूपलीला कहलाती है। रूपलीला को बाह्य लीला और नाम लीला को आन्तर लीला कहा गया है। वाह्य लीला कालचक्र की भाँति गमनागमन रूप और प्रवाह रूप है, आन्तर लीला नित्य है। आन्तर लीला को परमफल-रूपा भी बतलाया गया है।

बाह्याभ्यंतर भेदेन आंतरं तु परं फलम्,
ततः शब्दात्मिका लीला निर्दुष्टा सा निरूप्यते।[2]

आंतर लीला ‘निर्दुष्ट’ है, उसमें रूप लीला की भाँति मानादि दोष नहीं होते। फल प्रकरण के सात अध्यायों में से प्रथम पाँच में जो ‘रास पंचाध्यायी’ कहलाते हैं, रूप लीला का वर्णन हैं। भगवान ने पाँच प्रकार से रूप लीला की हैं- आत्मा से, मन से, वाणी और प्राण से, इन्द्रियों से और शरीर से। पंचाध्यायी में इन पाँच प्रकारों की रूप लीला का और अंतिम दो अध्यायों में आंतर लीला का वर्णन है। इनमें से अंतिम अध्याय[3] में निर्दोष फल-रूपा आन्तर लीला कही गई है। आंतर लीला केवल विप्रयोगात्मिका एवं भगवद्-गुणात्मिका है। श्री घनश्याम भट्ट ने अपनी ‘सूचिका’ में तामस-फल प्रकरण के सात अध्यायों में से प्रथम छह अध्यायों में भगवान के प्रसिद्ध ऐश्वर्यादि धर्मों का और सातवें अध्याय में उनके धर्मी स्वरूप का वर्णन बतलाया है। श्री वल्लभाचार्य ने सातवें अध्याय की अपनी कारिका में इस अध्याय की लीला को ‘सर्वोत्तमा’ कहा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सुबोधिनी, कारिका-1
  2. सु.का. 5
  3. 35 अ.

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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