हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 212

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य


सगुण भक्ति के पाँच मुख्य रस माने जाते हैं- शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और मधुर। इनमें से शान्त रस में तो न लीला के लिये अवकाश है और न चरित्र के लिये। यह रस उन लोगों को आस्वादित होता है जो ज्ञाननिष्ठ हैं और जिनमें यदृच्छा से भगवद्रति उत्पन्न हो गई है। ज्ञान निष्ठ पात्र में आधारित होने के कारण यह रति भगवत्-स्वरूप के आस्वाद में ही तृप्त रहती है, भगवद्-चरित्र या लीला के आस्वाद तक नहीं पहुँचती। दास्य रस में प्रथम बार भगवान और भक्त के बीच में स्वामी-सेवक सम्बन्ध के स्पष्ट दर्शन होते हैं इस सम्बन्ध के बल से मनुष्य भगवान के चरित्रों के आस्वाद का अधिकारी बन जाता है। दास्य भक्ति के साहित्य में भगवान के लोकानुग्राह चरित्रों का गान किया गया है। इस भक्ति का अमर काव्य ‘रामचरितमानस’ है। दास्य भक्ति में स्वामी और सेवक के बीच में स्वाभाविक संभ्रम बना रहता है और दोनों ओर से मर्यादा का पालन होता है। भगवान के स्वच्छन्द लीलामय रूप का विकास इस भक्ति के वातावरण में नहीं होता।

सख्य रस में चरित्र के साथ लीलाओं को भी अवकाश है और लीला का क्षेत्र यहीं से आरंभ होता है। सखाओं में परस्पर निरुद्देश्य क्रीडा का होना स्वाभाविक है और भक्त कवियों ने इस क्रीडा के सजीव वर्णन उपस्थित किये हैं। सख्य, वत्सल और मधुर रतियाँ संभ्रम के भार से मुक्त होती हैं। साथ ही इनमें ‘आनंद के लिये आनंदवाली’ प्रवृत्ति जाग्रत रहती है। इसी प्रवृत्ति को लेकर लीला की अवतारणा होती है। वात्सल्य रस में भी माता और बालक का प्रेम संभ्रम-शून्य और अन्य उद्देश्य हीन होता है। बाल लीला के सबसे बड़े गायक सूरदास हैं। सख्य और वात्सल्य में लीला की अभिव्यक्ति कुछ बँधे हुए रूपों में होती है, इनमें भाव गांभीर्य तो होता है किन्तु लीला का विस्तार और उसकी विविधता कम होती है। मधुर रस में लीला को उन्मुक्त प्रदेश मिल जाता है और वह अनेक नये रूपों में प्रगट हो जाती है। प्रेमलीला के उपासक भक्तों ने, इसीलिये, मधुर रस को सर्वाधिक महत्त्व दिया है। सूरदास ने भी जितने पद वात्सल्य और सख्य के कहे हैं उनसे कहीं अधिक श्रृंगार के कहे हैं। अष्टछाप के अन्य कवियों में सख्य और वात्सल्य के पदों का अनुपात और भी कम रह गया है।

लीला साहित्य के प्रणेताओं में सूरदास जी का विशिष्ट स्थान है। श्री वल्लभाचार्य का शिष्य होने के बाद, उनकी आज्ञा से, सूरदास जी ने श्रीकृष्ण लीला का गान प्रारंभ किया था। वार्ता में बतलाया गया है कि श्री वल्लभचार्य जी ने उनको भागवत के दशम स्कंध की अनुक्रमणिका सुनाई थी और फिर उनको व्रज में लाकर गोकुल के दर्शन कराये थे। गोकुल के साथ भाव-सम्बन्ध होते ही सूरदास जी को श्रीकृष्ण की बाल लीला का स्फुरण हुआ और उन्होंने वहीं एक पद बनाकर श्री वल्लभाचार्य को सुनाया। वल्लभ सम्प्रदाय की उपासना एवं सेवा प्रणाली में बाल-भाव का प्राधान्य है और सूरदास जी ने अपने सम्प्रदाय के सर्वथा अनुकूल रहकर बाल-लीला का गान किया है। किन्तु उनके श्रृंगार-लीला सम्बन्धी, पदों के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती। उनके श्रृंगारी पद श्री वल्लभाचार्य के तत्सम्बन्धी दृष्टिकोण का पूरा अनुसरण नहीं करते। इस बात को समझने के लिये हमें श्री वल्लभाचार्य कृत भागवत की प्रसिद्ध टीका ‘सुबोधिनी’ का अध्ययन करना होगा। भागवत की टीकाओं में यह टीका अपने ढंग की अनोखी है ओर इसी में श्री वल्लभाचार्य ने कृष्ण लीला सम्बन्धी अपने विशिष्ट दृष्टिकोण को उपस्थित किया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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