हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 211

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य


कृष्ण-भक्ति-शाखा के अन्यतम प्रवर्तक श्री वल्लभाचार्य स्वयं वैष्णव-दर्शन के स्थापक हैं। उन्होंने गीता[1] के आधार पर ‘पुरुषोत्तम’ को परात्पर तत्त्व माना है। पुरुषोत्तम उस अक्षर ब्रह्म से अतीत है जो ज्ञान-मार्ग का प्राप्य है। उन्होंने अक्षर ब्रह्म में आनंद की मात्रा भी कम मानी है। श्रीकृष्ण ही पुरुषोत्तम हैं और वे अगणितानंद हैं। श्री वल्लभाचार्य के अनुयायी अष्ट-छाप के कवियों ने इनही आनंद-स्वरूप श्रीकृष्ण की लीला का गान अपने पदों में किया है। इन श्रीकृष्ण के अमित माधुर्य के आगे निर्गुण ब्रह्म फीका और बेस्वाद मालुम देता है। इस तथ्य का प्रदर्शन करने के लिये इन कवियों को श्रीमद्भागवत का गोपी-उद्धव मिलन बहुत उपयुक्त लगा और उन्होंने इसके आधार पर अपने प्रसिद्ध भ्रमर-गीतों की सृष्टि की है। भ्रमर-गीतों में निर्गुण-सगुण सम्बन्धी प्रश्न को अनन्य प्रेमियों के दृष्टिकोण से देखा गया है एवं इसी दृष्टिकोण की श्रेष्ठता उनमें सिद्ध की गई है। प्रेमी गोपियों को निर्गुण वादियों का पक्ष हास्यास्पद प्रतीत होता है। उनका प्रेम नित्य सगुण पदार्थ है। वे यह नहीं समझ पातीं कि इस प्रेम का आधार सगुण से भिन्न कैसे हो सकता है। कृष्ण-भक्त कवियों को यह प्रसंग इतना रुचिकर प्रतीत हुआ कि भ्रमर गीतों और उद्धव-संदेशों की एक लम्बी परम्परा इस शाखा के साहित्य में मिलती है।

राम-भक्ति-शाखा में श्रीराम के ‘चरित्र’ का चित्रण हुआ है, कृष्ण-भक्ति-शाखा में श्रीकृष्ण की ‘लीला’ का गान। ‘चरित्र’ और ‘लीला’ का प्रयोग प्रायः समानार्थ में होता है और राम चरित्र को रामलीला भी कहते हैं। ‘चरित्र’ और ‘लीला’ चाहे बाहर से एक जैसे दिखते है।, किन्तु इन दोनों में महत्त्वपूर्ण भिन्नता है। चरित्र के वर्णन में उन क्रियाओं का प्रकाशन विशेष रूप से होता है जो जीवन में किसी विशेष उद्देश्य से की जाती हैं, लीला के गान में उन क्रियाओं को प्रकट किया जाता है जो केवल आनंदमयी हैं और जो निरुद्देश्य हैं। लीला का प्रयोजन लीला ही माना गया है। भागवत में श्रीकृष्ण चरित्र और लीला, दोनों का वर्णन मिलता है। कृष्ण भक्त कवियों ने श्रीकृष्ण के चरित्र का वर्णन बहुत कम किया है और लीला का बहुत अधिक। सूरदास श्रीमद्भागवत के आधार पर सम्पूर्ण कृष्ण चरित्र का वर्णन करते हैं किन्तु उनके विश्राम स्थल दो ही हैं- बाल गोपाल की आनंदमयी और निरुद्देश्य बाल-चेष्टायें और श्रीकृष्ण और गोपियों का सहज प्रेम। लीला को भक्तों ने क्रीडा भी कहा है और जिसमें हार-जीत का प्रश्न प्रधान न हो वही सुन्दर क्रीडा है। क्रीडा का प्रयोजन क्रीडा के सुख की अनुभूति ही है और लीला-सुख के अनुभव के लिये ही भक्तों ने लीला का गान किया है। लीला में किसी शिक्षा को ढूँढना व्यर्थ है क्योंकि फिर तो लीला सोद्देश्य बनकर चरित्र बन जायगी। इस बात को ध्यान में न रख कर ही कृष्ण-भक्ति काव्य में लोक संग्राहकता के अभाव की शिकायत की जाती है। कृष्ण-भक्ति काव्य के बहुत बड़े अंश में, निर्विवाद रूप से, लोक संग्राहकता का अभाव है किन्तु यह इस काव्य का दूषण नहीं कहा जा सकता। इस अभाव से इसकी सुषमा को कोई हानि नहीं पहुँचती। यह तो भिन्न युग के लोगों की भिन्न रुचि का प्रश्न है। भक्ति-काल में भगवान के प्रत्येक चरित्र पर लीला की निरूद्देश्यता का आरोप किया जाता था, अब लीला से चरित्र के समान आदर्श-वाहक बनने की आशा की जाती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 18-14

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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