हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 209

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य


भक्ति की यह दो शाखायें उत्तर भारत में आकर हुईं। उस समय यहाँ का एक बहुत बड़ा प्रदेश उन मतों से प्रभावित था जिनका साधन-पक्ष योग पर और विचार पक्ष शांकार वेदान्त पर आधारित था। श्री शंकराचार्य ने ब्रह्म की निर्गुण स्थिति को ही उसकी आत्यंतिक स्थिति माना है, सगुण तो वह माया शवलित होकर बनता है। सगुण होते ही उसमें नाम रूप की क्षमता आ जाती है और वह उपासना के योग्य बन जाता है। साधक का मन सगुण पर सध जाने पर वह निर्गुण ब्रह्म की उपलब्धि कर लेता है। स्वभावतः इस मत में ब्रह्म का सगुण रूप उसके निर्गुण रूप से भिन्न है और यह भिन्नता मायोपाधि के कारण है। भक्ति को इन मतों के प्रदेश में लाने वाले श्री रामानन्द स्वयं इन गतों से कितने ही अंशों में प्रभावित थे। उनकी दृष्टि भक्ति के स्वाभाविक पक्ष की ओर अधिक थी, उसके दार्शनिक पक्ष के प्रति उनका विशेष आग्रह मालूम नहीं होता। परिणामतः उनके अन्यतम शिष्य कबीरदास जी ने भक्ति के सहज पक्ष की रक्षा करके उसके दार्शनिक पक्ष का समन्वय प्रचलित योग मार्ग और शांकर वेदान्त परिपाटी के साथ कर दिया। इस समन्वय से भक्ति का जो रूप बना वही भक्ति की ‘निर्गुण शाखा’ कहलाता है। शंकराचार्य ने सगुण को माया-शवलित तत्त्व बतलाया था। अतः इस शाखा के भक्तों ने भी उसका निषेध कर दिया और अपना उपास्य ‘निर्गुणराम’ को बतलाया। यह ‘निर्गुणराम’ श्री शंकराचार्य के निर्गुण तत्त्व से भिन्न हैं, किन्तु ढाँचे में उसी के ढले हैं। ‘निर्गुणराम’ में विशेषता यह है कि उनके साथ भक्ति का स्वरूपगत सेव्य-सेवक सम्बन्ध या उपास्य उपासक सम्बन्ध लगा हुआ है। उनके निर्गुण होने के कारण इस सम्बन्ध की स्थिति भी केवल भाव में रह गई है और सेवा-प्रकार भी भावमय है। इस शाखा का साहित्य सेव्य-सेवक की बड़ी भाव-पूर्ण एवं सुन्दर व्यंज्जनाओं से भरा पड़ा है जो दस साहित्य का सबसे बड़ा आकर्षण है। कबीरदास जी ने योगिक क्रियाओं की ओर आकर्षित होते हुए भी ‘भाव’ को अपनी साधना में बड़ा उन्नत स्थान दिया है। वे अपने अनेक पदों में भाव-हीन योगी को फटकारते दिखलाई देते हैं और यह कहने की तो आवश्यकता नहीं है कि भक्ति के सम्पूर्ण भावों का आधार उपास्य-उपासक सम्बन्ध ही है।

सगुण शाखा वैष्णव-दर्शन का सहारा लेकर चली। इस शाखा का परात्पर तत्त्व सगुण एवं नराकृति है। इसके साथ का सेव्य-सेवक सम्बन्ध सम्पूर्णतया मानव सम्बन्ध है और इसकी सेवा का सर्वश्रेष्ठ प्रकार आत्मवत सेवा है। सगुणशाखा की सबसे सुन्दर और बलशालिनी योजना इष्ट योजना है। इसमें भगवान के किसी एक रूप को इष्ट मानकर उसकी उपासना की जाती है। इष्ट सम्पूर्ण प्रियता का आधार होता है और भक्त सम्पूर्ण हृदय से केवल उसी के रूप-गुण का गान करता है। इस योजना में भक्ति का सहज व्यक्तिगत दृष्टिकोण निखर आया है। साथ ही उपास्य तत्त्व इष्ट बनकर उपासक के बहुत निकट आ जाता है और उपासक उसके साथ सहज आत्मीय सम्बन्ध में बँध जाता है। इष्ट के प्रति इस निर्व्याज आत्मीयता ने ही सगुण साहित्य की सृष्टि की है और यह समूचा साहित्य आत्मीयता के राग से ही रंजित है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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