श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य
भक्ति की अभिव्यक्ति पर भक्त के व्यक्तित्व का बड़ा गहरा प्रभाव होता है। इस प्रभाव के कारण भक्ति साहित्य को वह मानवीय सम्बन्ध[1] मिल जाता है जो रसास्वाद के लिये परम आवश्यक होता है। उस साहित्य में जिसको आजकल ‘शुद्ध साहित्य’[2] कहा जाता है और जिसको भक्ति कवि ‘लौकिक काव्य’ कहते थे, मानवीस सम्बन्ध ही-चाहे वह मनुष्य-मनुष्य के बीच हों, चाहे मनुष्य और प्रकृति के बीच-वर्ण्य विषय होते हैं। इन सम्बन्धों का ज्ञान सर्व सामान्य होता है, इसीलिये इन पर आधारित रूप-विधान का साधारणी करण कवि-प्रतिभा के बल से हो जाता है। साधारणी कृत रूप विधान सर्व सहृदय-संवेद्य बन जाते हैं। इससे स्पष्ट है कि मानवीय संबन्ध के कारण ही साहित्य आस्वाद्य बनता है। भक्ति साहित्य का वर्ण्य विषय मनुष्य और भगवत्तत्त्व के बीच का सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध को आस्वादनीय बनाने के लिये सगुण शाखा के भक्तों ने भगवत्तत्त्व को मानवीय धरातल पर लाकर उसका गान किया है। इस कार्य में अवतार के सिद्धान्त ने बहुत सरलता उत्पन्न की है। भगवान के दो रूप माने गये हैं- ऐश्वर्य रूप और माधुर्य रूप। ऐश्वर्य रूप लोकातीत और माधुर्य रूप लोकवत् माना गया है। सगुण शाखा के भक्तों ने माधुर्य रूप की लोकवत लीलाओं का ही गान किया है। किन्तु निर्गुण शाखा के भक्त अवतारों का वर्णन नहीं करते और न उनकी लाकवत लीलाओं का ही गान करते हैं। उनका भगवत्तत्त्व निर्गुण और निराकार है किन्तु उनका इस तत्त्व के साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध है। व्यक्तिगत सम्बन्ध होते ही उसमें मानवीस तत्त्व प्रविष्ट हो जाता है और उनका निर्गुण-निराकार का गान भी आस्वाद्य बन जाता है। अपने सुदृढ़ प्रेम-सम्बन्ध के बल पर ही निर्गुण शाखा के भक्तों ने असीम और अरूप को अपना उपास्य बनाया है। सगुण भक्ति शाखा की भाँति निर्गुण भक्ति साहित्य में उपास्य का रूप और लीला-वैभव तो प्रदर्शित नहीं किया जाता किन्तु भक्त की भक्ति का वैभव खूब प्रकाशित होता है। अरूप और असीम को विषय बनाकर भक्ति अमित सामर्थ्य शालिनी बनी है और सम्पूर्ण निर्गुण साहित्य उसी की शक्ति से प्राणवान और तेजस्वी बना हुआ है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि भक्ति साहित्य भक्ति के द्वारा ही प्रायोजित और उसी के स्वभाव के अनुसार नियोजित है। भक्ति-सूत्रों मे भक्ति का लक्षण ‘ईश्वर में परानुरक्ति’ बतलाया गया है। ‘भक्ति’ शब्द ‘भज’ धातु से बनत है जिसका अर्थ ‘सेवा करना’ है। धात्वर्थ को साथ लेकर ‘भक्ति’ से सेवा-परायण प्रेम का बोध होता है। सेवा के लिये सगुण और साकार तत्त्व की आवश्यकता होती है। अपनी जन्म-भूमि दक्षिण मे भक्ति सविशेष उपास्य तत्त्व के आश्रय में ही फूली-फली थी। श्री रामानुज ने वेदान्त प्रतिपाद्य अद्वय तत्त्व को जीव और जगत विशिष्ट सिद्ध किया है। उनके मत में निर्गुण वस्तु की कल्पना ही असंभव है। ब्रह्म सदा सगुण ही होता है, निर्गुण ब्रह्म का अर्थ इतना ही है कि वह प्राकृत गुणों से विरहित है। श्री मध्वाचार्य भी सगुण ब्रह्म को ही परात्पर तत्त्व मानते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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