हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 201

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
वाणी


बात रूप जबही ते चीन्हा, नैंननि कानन नाता कीन्हा।
काननि रूप मनहि पहुँचायौ, मन सरूप ह्वै नैन समायौ।।
रूप मई नैंना ह्वै रहे, आनँद आतुर जाँय न कहे।
मन पूछ्यौ नैनहि के ताईं, करत जो बात सोव किहि ठाईं।।
नैंननि कह्यौ न हम कछु जानहिं, देखे बिना नहिं पहिंचानहिं।
आवहु कीजै एक उपाऊ, प्रेमहिं पूछैं सहज सुभाऊ।।
मन अरु नैन प्रेम पहिं गये, तिहि दोऊ न्यारे कर दये।
मन लै पहुँचायौ पिय पास, नैंन अकेले रहे निरास।।
रोबहिं नैंना दिन अरु राती, लहें न अपने बात-सँघाती।
मन पिय पै नैंना रोबहिं सोवहिं नाहि।
प्रेम-पंथ रोके तिनहिं क्यौव तहाँ लौं जाहिं।।[1]

चाचा हित वृन्दावनदास ने उन करुणा अयन-रसज्ञ जनों की वंदना की है जिन्होंने श्री युगल से मिलने के लिये वाणी रूपी नेत्र बनाये हैं। इन नेत्रों के सहारे जो चले हैं वे निस्संदेह पहुँचे हैं। स्नेह हीन, तर्की और मन्दमति नरपशु इनको छोड़कर भटकते ही रहते हैं।’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. आनंद लहरी

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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