हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 200

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
वाणी


जब तोरी बात परी मो काना, बातहि होइ गये मोरे प्राना।
जब ही बात स्वरूप निहारा, तब ही कान होइ गये तारा।।
सुनहि रूप देखैं तब बैना, कबहूँ कान कबहुँ ये नैना।
सो जोहै सो एसौ जोहै, जोहन हारौ एसौ जोहै।।
देखन सुनन जो अंतर करहीं, अस अन समझनि सों दिन जरहिं।
देखा सुना, सुना सो देखा, भई तिहि समझ-रेख की रेखा।।[1]

प्रेम की बात के रूप को देखने के बाद प्रेमी का मन जिस सहज प्रकार से प्रियतम के पास पहुँच जाता है उसका सजीव वर्णन करते हुए श्री मोहन जी कहते हैं ‘जब से बात का रूप पहिचान लिया तभी नेत्र और कानों का नाता जुड़ गया। कानों ने रूप को मन के पास पहुँचा दिया और मन रूपवान बनकर नेत्रों में समा गया। नेत्रों में रूप के पहुँचते ही वे रूपमय बन गये और आनन्द से अधीर होकर रूप की बात करने लगे। उनकी बात सुनकर मन ने नेत्रों से पूछा तुम जिसकी बात करते हो वह कहाँ है? नेत्रों ने कहा यह हमको कुछ मालुम नहीं है, हम बिना देखे उसको कैसे पहिचान सकते हैं? चलो, एक उपाय करैं और प्रेम से ही इस सम्बंध में पूँछा। यह विचार कर मन और नेत्र प्रेम के पास गये किंतु प्रेम ने उन दोनों को अलग कर दिया। उसने मन को तो प्रियतम के पास पहुँचा दिया और नेत्र निराश होकर अपनी जगह पर रह गये। अब तो नेत्र दिन-रात रोने लगे। उनसे जिसने रूप की बात कही थी वह साथी उनको अब ढूंढे नहीं मिलता था। मन तो प्रियतम के पास पहुँच गया और नेत्र अन्यत्र रह गये, इस कारण वे दिन-रात रोते हैं और उनको नींद नहीं आती। प्रेम की अद्भुत गति से रुके हुए नेत्र अपने प्रियतम के पास भला कैसे पहुँचें?

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. केलि-कल्लोल

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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