श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
वाणी
जब तोरी बात परी मो काना, बातहि होइ गये मोरे प्राना। प्रेम की बात के रूप को देखने के बाद प्रेमी का मन जिस सहज प्रकार से प्रियतम के पास पहुँच जाता है उसका सजीव वर्णन करते हुए श्री मोहन जी कहते हैं ‘जब से बात का रूप पहिचान लिया तभी नेत्र और कानों का नाता जुड़ गया। कानों ने रूप को मन के पास पहुँचा दिया और मन रूपवान बनकर नेत्रों में समा गया। नेत्रों में रूप के पहुँचते ही वे रूपमय बन गये और आनन्द से अधीर होकर रूप की बात करने लगे। उनकी बात सुनकर मन ने नेत्रों से पूछा तुम जिसकी बात करते हो वह कहाँ है? नेत्रों ने कहा यह हमको कुछ मालुम नहीं है, हम बिना देखे उसको कैसे पहिचान सकते हैं? चलो, एक उपाय करैं और प्रेम से ही इस सम्बंध में पूँछा। यह विचार कर मन और नेत्र प्रेम के पास गये किंतु प्रेम ने उन दोनों को अलग कर दिया। उसने मन को तो प्रियतम के पास पहुँचा दिया और नेत्र निराश होकर अपनी जगह पर रह गये। अब तो नेत्र दिन-रात रोने लगे। उनसे जिसने रूप की बात कही थी वह साथी उनको अब ढूंढे नहीं मिलता था। मन तो प्रियतम के पास पहुँच गया और नेत्र अन्यत्र रह गये, इस कारण वे दिन-रात रोते हैं और उनको नींद नहीं आती। प्रेम की अद्भुत गति से रुके हुए नेत्र अपने प्रियतम के पास भला कैसे पहुँचें? |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ केलि-कल्लोल
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