श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
नाम
श्री हित नित्य विहार यह सो निज मंत्र स्वरूप। ‘सेवा विचार’ में इस मंत्र के सम्बन्ध में दो श्लोक दिये हैं। प्रथम श्लोक में कहा गया है- ‘व्यासात्मज श्री हित हरिवंश के कान में श्रीराधिका ने जो सिद्ध मंत्र कहा था, उसी से गुणवान गुरु को श्रद्धा-युक्त जीवों को दीक्षित करना चाहिये। इस शुद्ध मंत्र के दान में शरणागत ब्राह्मणों का, क्षत्रियों का, वैश्यों का, साधु चरित्र वाले शूद्रों का एवं स्त्रियों का भी समान रूप से अधिकार है।'[1] दूसरे श्लोक में मंत्र की ‘सिद्धता’ का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है ‘इस मंत्र में पुरश्चरण आदि की विधि नहीं है, किसी विशेष आसन से बैठकर इसके जप करने की विधि नहीं है, मंत्र-जप के समय किसी विशेष प्रकार के भोजन की विधि नहीं है, मंत्र-जप काल में तीर्थ सेवन विधि नहीं है, मंत्र-जप के पूर्व प्राणायाम और अंगन्यास-करन्यास आदि की विधि नहीं है, एसे, श्री वृषभानुजा द्वारा कहे गये, सिद्ध मंत्र का प्रति दिन जप करना चाहिये।'[2] नित्य विहार की उपासना में ‘इष्ट[3] गुरु[4] एवं निज मंत्र का एक ही स्वरूप माना गया है और तीनों नित्य विहार के बीज माने गये हैं। इनको छोड़कर जो अन्य का भजन करता है वह व्यभिचारी समझना चाहिये। इष्ट, गुरु अरु मंत्र निज एक रूप रसखान। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज