हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 198

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
नाम


श्री हित नित्य विहार यह सो निज मंत्र स्वरूप।
याही के अनुकूल हित बानी रसद अनूप।।
ध्यान भावना भजन सब, याहि बिना कछु नाहि।
यातै श्री हित मंत्र के अक्षर मन अवगाहि।।
मानसीक निज जाप तें बाढ़त प्रेम अपार।
शुद्ध-अशुद्ध शरीर कौ यामैं कछु न विचार।।

‘सेवा विचार’ में इस मंत्र के सम्बन्ध में दो श्लोक दिये हैं। प्रथम श्लोक में कहा गया है- ‘व्यासात्मज श्री हित हरिवंश के कान में श्रीराधिका ने जो सिद्ध मंत्र कहा था, उसी से गुणवान गुरु को श्रद्धा-युक्त जीवों को दीक्षित करना चाहिये। इस शुद्ध मंत्र के दान में शरणागत ब्राह्मणों का, क्षत्रियों का, वैश्यों का, साधु चरित्र वाले शूद्रों का एवं स्त्रियों का भी समान रूप से अधिकार है।'[1]

दूसरे श्लोक में मंत्र की ‘सिद्धता’ का अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है ‘इस मंत्र में पुरश्चरण आदि की विधि नहीं है, किसी विशेष आसन से बैठकर इसके जप करने की विधि नहीं है, मंत्र-जप के समय किसी विशेष प्रकार के भोजन की विधि नहीं है, मंत्र-जप काल में तीर्थ सेवन विधि नहीं है, मंत्र-जप के पूर्व प्राणायाम और अंगन्यास-करन्यास आदि की विधि नहीं है, एसे, श्री वृषभानुजा द्वारा कहे गये, सिद्ध मंत्र का प्रति दिन जप करना चाहिये।'[2]

नित्य विहार की उपासना में ‘इष्ट[3] गुरु[4] एवं निज मंत्र का एक ही स्वरूप माना गया है और तीनों नित्य विहार के बीज माने गये हैं। इनको छोड़कर जो अन्य का भजन करता है वह व्यभिचारी समझना चाहिये।

इष्ट, गुरु अरु मंत्र निज एक रूप रसखान।
इनकैं तजि औरहिं भजै सो व्यभिचारी जान।।[5]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. से. वि. 88
  2. से. वि. 89
  3. श्री राधावल्लभ लाल
  4. श्री हित हरिवंश
  5. श्री भजनदास जी

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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