श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
नाम
नित-नित श्री हरिवंश नाम छिन-छिन जु रटत नर। नामोपासना का तीसरा प्रकार नाम-सेवा है जिसका वर्णन हम ऊपर कर चुके हैं और जो केवल इसी संप्रदाय में दिखलाई देता है। सब वैष्णव-संप्रदायों में नाम और रूप अभिन्न माने जाते हैं। सर्वत्र नाम का जप अथवा कीर्तन होता है और रूप की सेवा की जाती है। श्री हिताचार्य ने नाम की सेवा का विधान बनाकर नाम और रूप की मौलिक अभिन्नता को स्पष्ट कर दिया है और नाम को रूपमय और रूप को नाममय प्रमाणित कर दिया है। उपासना पद्धति में नामोपासना के साथ मंत्र-जप भी बहुत आवश्यक माना जाता है। इस सम्प्रदाय में दो मंत्र प्रचलित हैं। इनमें से एक ‘शरणागति-मंत्र’ और दूसरा ‘निज-मंत्र’ कहलाता है। संप्रदाय में दीक्षित होते समय पहिले शरणागति-मंत्र दिया जाता है। यह ‘अष्टदशाक्षर मंत्र’ हैं। साधन-पथ पर आरूढ़ होने पर निज-मंत्र दिया जाता है। यह द्वादशाक्षर मंत्र है। यह वह मंत्र है जो श्रीराधा ने हितप्रभु को दिया था। दोनों मंत्र आगम-तंत्रों में प्रसिद्ध मंत्रों से भिन्न हैं और इनके आदि में ‘क्लीं’ आदि बीजों की योजना नहीं है। निज मंत्र में तो ‘नमः’ शरणं’ आदि शब्द भी योजित नहीं हैं। श्री राधा-प्रदत्त ‘निज-मंत्र’ को राधा वल्लभीय उपासना का बीज माना जाता है। श्री भजनदास ने बतलाया है, ‘हित का यह नित्यविहार ‘निज -मंत्र’ का ही स्वरूप है और हित प्रभु की रसद एवं अनुपम वाणी भी इसी के अनुसार है। ध्यान, भावना, भजन आदि इसके बिना व्यर्थ हैं। इस मंत्र के मानसिक जप से अपार प्रेम बढ़ता है। इसके जप में शुद्ध-अशुद्ध शरीर का विचार नहीं है।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ से. वा. 6-15
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