मेरौ जिय घबरात रहत नित, ऐसे तौ मन धीर न आवै।
नाम-श्वास दोऊ विलग चलत हैं, इनकौ भेद न मोकौं भावै।।
यवासहि नाम, नाम ही श्वासा, नाम-स्वास कौ भेद मिटाव
रोम-रोम रग-रग जब बोलै, तब कछु स्वाद नाम कौ पावै।।
इन्द्रिय-मन सब होइ नाम जब, सकल विषय फुरना जु नसावै।
बाहिर कछु न कछु तब भीतर, जिय अरु नाम एक ह्नै जावै।।
तब निजु रूप नाम कौ प्रकटै, तन में श्रीवन सहज दिखावै।
ह्वै मृदु भूमि चरण तल चूमै, जमुना ह्वै जु ललित लहरावै।।
जल-थल विविध कुसुम ह्वै फूलै, सीतल पवन सुरभि धावै।
अंबर ह्वै अँग अंगनि लपटै, विविध अनिल हठि ताहि उड़ावै।।
प्रफुलित लता लपटि भई कुंजैं, पुहुप सेज ह्वै तहँ जु सुहावै।
तापै हित उमगीली जोरी, तन-मन उमगि-उमगि उमगावै।।
तन हित मन हित, प्रान तहाँ हित हित में ह्वै हित रूप समावै।
हित कौ कोक, कला सब हित की, हितपानिप, हितरंग चुचावै।।
हित अनखान भौंह कौ चढि़वौ, हित मिठास मुदु मुसिकन भावै।
हित नीवी-बँध खोलत, हित भुज गौर-श्याम हित-कलह मचावै।।
हित कौ खेत, जुरेभट हित के, हित कौ खेल अधिक अधिकावै।
हित उमगीली, हित उमगीलौ, हित उमगै हित ही उमगावै।।
हित जु बिबस, हित चेतत छिन-छिन, हित पानी, हित प्यास कहावै।
बिच-बिच मृदु-मृदु बोलनि हित की, हित पसेव ह्वै आनन छावै।।
हित पौंछे, हित व्यजन डुलावै, हित समीर ह्वै सुख जु बढ़ावै।
हित नख-छत ह्वै लसत कुचन पै, हित रद -छद अधरन दरसावै।।
हित चुंबन, हित ही परिभंजन, भुजनि-कसनि हित, हित लपटावै।
हित जु झरत कुसुमावलि टूटी, हित लट छुटी कपोलनि दावै।।
हित कौ रूप उमंग कौ सागर, क्षुभित अनंत लहरि अकुलावै।
तामें बूंद मिली हित भोरी, सो कहु कौन भाँति ठहरावै।।