श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
श्री हरिवंश-चरित्र के उपादान
शिष्यों के चरित्रों से श्री हित हरिवंश के धर्म प्रचार की अद्भुत विद्या का भी पता चलता है। वृन्दावन आने के बाद हित-प्रभु जीवन भर व्रज भूमि के बाहर नहीं गये। व्रज में भी केवल राधाकुण्ड में उनकी बैठक मिलती है। वृन्दावन में उनके पुण्य प्रभाव एवं परम-अनन्य रहन-सहन के कारण अनेक लोग अनायास उनकी ओर आकृष्ट हुए थे। धर्म का प्रत्यक्ष रूप धर्मी है। धर्मी में ही धर्म नेत्रों का विषय बनता है। श्री हित हरविंश ने अपने स्वरूप में प्रेमा भक्ति को मृर्तिमान किया था। प्रेमाभक्ति वाद-विवाद के द्वारा स्थापित नहीं की जा सकती, उसके प्रत्यक्ष-दर्शन के द्वारा हृदय में उसका संचार होता है। हित प्रभु के सांनिध्य में जो भी व्यक्ति आता था, उसके हृदय में प्रेम की धारा फूट पड़ती थी और उसके सम्पूर्ण संशयों का छेदन हो जाता था। छबीलदास के चरित्र से मालूम होता है कि देववन के एक तमोली थे। उनका श्री हित जी के साथ बालकपन से ही प्रेम था और वे उनके ठाकुर जी के लिए नित्य-प्रति पान पहुँचाया करते थे। हित प्रभु के वृन्दावन जाने के बाद छबीलदास का मन देववन में नहीं लगा और वे उनसे मिलने के लिये वृन्दावन गए। हित जी ने उनका बहुत आदर-सत्कार किया और अपने एक भृत्य के साथ उनको वन देखने को भेज दिया। वन में पहुँचते ही छबीलदास जी को प्रेम, सौन्दर्य और आनन्द की परावधि रास के दर्शन हो गये और वे मूर्च्छित हो कर वहीं गिर पड़े। उनको किसी प्रकार हित प्रभु के पास लाया गया। हित प्रभु ने उनसे पूछा- ‘संसार में अभी और कुछ दिन रहोगे,’ या निकुञ्ज में पहुँच कर नित्स-केलि का सुखानुभव करोगे’? ‘पूँछी आप प्रगट कछु रहि हौ। किधौं निकुञ्ज केलि सुख लहिहौ।।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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