श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
भावना
श्रीमद् वृन्दावनं ध्यायेन्नानाद्रुम लतालयम्। प्रकट सेवा जिस प्रकार मंगला आरती से शयन आरती पर्यन्त होती है, उसी प्रकार भावना का भी क्रम है। दोनों सेवाओं में भेद यह है कि प्रकट सेवा स्थूल देश काल से आवद्ध है और भावना में इस प्रकार का कोई बंधन नहीं है। भावना में ऐसी लीलाओं का भी समावेश हो जाता है जिनका दर्शन प्रकट सेवा में संभव नहीं है। उदाहरण के लिये सायंकालीन सेवा में उत्थापन केे बाद बन- विहरण, जल-केलि, कंदुक-क्रीड़ा, दानलीला आदि लीलाओं का चिंतन करने की व्यवस्था भावना-पद्धति में दी हुई है। इसी प्रकार संध्या आरती के पश्चात रास लीला का चिंतन होता है। प्रकट सेवा से भावना मे सेवा का अवकाश अधिक रहता है, इसीलिये इस सेवा का महत्त्व अधिक है। दूसरी बात यह है कि प्रकट सेवा में मन का पूरा योग न होने पर भी सेवा का कार्य चलता रहता है किन्तु भावना में मन के इधर-उधर होते ही सेवा रुक जाती है और सेवाको पूर्ण करने के लिये मन को स्थिर होना ही पड़ता है। मन को वश में करने के लिये यह अभ्यास श्रेष्ठ है। मन स्थिर होकर जिस विषय का चिन्तन करता है उसी के प्रति उसमें राग उत्पन्न हो जाता है और अनुकूल पदार्थ में राग का नाम ही ‘प्रेम’ है। भावना के द्वारा, इसीलिये, अधिक प्रेमोत्पत्ति मानी गई है। इस सम्प्रदाय के साहित्य में ‘अष्टयामों’ का एक स्वतन्त्र एवं महत्त्वपूर्ण स्थान है। इस अष्टयामों में रस-सिद्ध संतों की भावना का वांगमय स्वरूप प्रकट हुआ है। प्रायः सभी पहुँचे हुए रसिकों ने अष्टयामों की रचना की है जिनमें से अनेक उपलब्ध हैं। अकेले श्रीवृन्दावन दास चाचाजी के चौदह अष्टयाम प्राप्त हैं। इन रसिकों के अधिकांश सुन्दर पद अष्टयामों में ही ग्रथित हैं। अष्टयामों में युगल की अष्ट कालिक लीला का चमत्कार पूर्ण गान एवं सखीजनों की रसमयी सेवा का विशद वर्णन रहता है। भावना का अभ्यास करने वाले को यह अष्टयाम अत्यन्त सहायक होते हैं। प्रेमपूर्ण मनोयोग के साथ किसी अष्टयाम का गान कर लेने से भावना का कार्य सरस रीति से निष्पन्न हो जाता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अ. वि. 12-13-15-16
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