हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 185

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
प्रकट-सेवा


प्रकट सेवा को नित्य विहार की नींव कहा गया है। ‘भगवत कृपा से जिस उपासक के चित्त में प्रकट सेवा की सुदृढ़ नींव लग जाती है उसके हृदय में ‘हित-महल-रस’[1] निश्चल रूप से स्थित हो जाता है।’

प्रगट भाव की नींव दृढ़ कीजै कृपा मनाइ।
तव निश्चल हित-महल-रस रहै चित्त ठहराइ।।[2]

श्री लाड़िली दास अन्यत्र कहते हैं ‘प्रकट सेवा एक सच्ची हुंडी है। जिन्होंने इस हुंडी को ग्रहण किया है उनको इसके पूरे दाम मिले हैं। अब भी जो उपासक इसको दृढ़ विश्वास पूर्वक ग्रहण करता है उनको वृन्दावन की सुन्दर सम्पत्ति मिलती है।’

प्रगट भाव हुंडी सही गही लहे तिन दाम।
अबहुँ गहैं बिस्वास दृढ़ लहैं सु संपति धाम।।[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नित्यविहार-रस
  2. सु. बो.
  3. सु. बो.

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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