हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 184

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
प्रकट-सेवा


इस सेवा प्रणाली में शालिग्राम शिला की सेवा का भी विधान नहीं है। कहा गया है ‘शालिग्राम आदि मूर्तियों में प्रेमलीला परायण वृन्दावन बिहारी की नित्य कैशोर लीला की अनुकृति वंशी, मोरमुकुट, त्रिभंगत्व आदि चिह्नों के द्वारा देखी नहीं जाती। अतः अपने अनन्य विमल एवं सहज सुखमय भाव से बँधे हुए हमारे पूर्वाचार्यों ने इष्टाक्षरों के लेख वाली ‘नाम सेवा’ रूपी मूर्ति स्थापित की है।'

शालिग्रामादि मूर्ती विपिनवर गत प्रेम लीला परस्य,
नित्या कैशौर लीलानुकृतिरथ यतो दृश्यते नैव चिह्नै।
तस्मात्पूर्वैरनन्यामल सहजसुख स्वीय भावानुवद्धै
लेप्या संस्थापितेष्टाक्षर लिखनमयी नाम-सेवेति मूर्ति।[1]

‘नाम-सेवा’ इस सम्प्रदाय की एक विशेष वस्तु है। वैष्णव सिद्धान्त्त में नाम और नामी सर्वथा अभिन्न हैं। अतः जो सपर्या हम नामी के स्वरूप को अर्पण करते हैं वही नाम के स्वरूप को भी अर्पण कर सकते हैं।

‘नाम-सेवा’ में नाम का लिपि मय रूप प्रस्तर पर किंवा काठ पर उपस्थित किया जाता है। इसमें ‘राधावल्लभो जयति’ अथवा ‘श्री राधावल्लभ-श्री हरिवंश’ नाम लिखा रहता है। ‘नाम सेवा’ का आकार चौकोर रहता है और ऋंगार धारण कराने की सुविधा के लिये किसी-किसी में चौकोर भाग के ऊपर मुख का आकार बना दिया जाता है। श्रीमद् भागवत् में आठ प्रकार की भगवत प्रतिभाओं का विधान है उनमें ‘नाम-सेवा’ भगवान की ‘लेप्या’ प्रतिमा है। संकट काल में किंवा प्रवासादि में जहाँ स्वरूप-सेवा का अवसर प्राप्त नहीं होता वहाँ नाम-सेवा को कंठ में धारण करके उसका प्रसाद एवं चरणोदक लेने की व्यवस्था दी हुई है।

अनन्य रसिकों ने अपनी नित्य-कैशोर-लीला की सेवा प्रणाली में वैकुंठादि लीलाओं के चिह्नों को ग्रहण नहीं किया है। इनकी सेवा में न तो शंख-चक्रादिक रहते हैं और न घंटा पर गरुड़ का आकार स्थापित रहता है। अनेक पुराण-वाक्यों के आधार पर यह सिद्धान्त किया गया है कि ‘राधापति की प्रथम अवतार-रचना वैकुंठ में है। श्रीकृष्ण के अंश से नारायण हरि की उत्पत्ति हुई है और श्री राधा के अंश से कमला का प्रादुर्भाव हुआ है। जगत की रक्षा के लिये इन दोनों लक्ष्मी- नारायण अवतारों से अनेक अवतारों की रचना हुई है। वृन्दाविपिन में नित्य विहारी राधामोहन सर्वोत्कृष्ट रूप में विराजमान हैं।’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. से. वि. 52

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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