श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
प्रकट-सेवा
शालिग्रामादि मूर्ती विपिनवर गत प्रेम लीला परस्य, ‘नाम-सेवा’ इस सम्प्रदाय की एक विशेष वस्तु है। वैष्णव सिद्धान्त्त में नाम और नामी सर्वथा अभिन्न हैं। अतः जो सपर्या हम नामी के स्वरूप को अर्पण करते हैं वही नाम के स्वरूप को भी अर्पण कर सकते हैं। ‘नाम-सेवा’ में नाम का लिपि मय रूप प्रस्तर पर किंवा काठ पर उपस्थित किया जाता है। इसमें ‘राधावल्लभो जयति’ अथवा ‘श्री राधावल्लभ-श्री हरिवंश’ नाम लिखा रहता है। ‘नाम सेवा’ का आकार चौकोर रहता है और ऋंगार धारण कराने की सुविधा के लिये किसी-किसी में चौकोर भाग के ऊपर मुख का आकार बना दिया जाता है। श्रीमद् भागवत् में आठ प्रकार की भगवत प्रतिभाओं का विधान है उनमें ‘नाम-सेवा’ भगवान की ‘लेप्या’ प्रतिमा है। संकट काल में किंवा प्रवासादि में जहाँ स्वरूप-सेवा का अवसर प्राप्त नहीं होता वहाँ नाम-सेवा को कंठ में धारण करके उसका प्रसाद एवं चरणोदक लेने की व्यवस्था दी हुई है। अनन्य रसिकों ने अपनी नित्य-कैशोर-लीला की सेवा प्रणाली में वैकुंठादि लीलाओं के चिह्नों को ग्रहण नहीं किया है। इनकी सेवा में न तो शंख-चक्रादिक रहते हैं और न घंटा पर गरुड़ का आकार स्थापित रहता है। अनेक पुराण-वाक्यों के आधार पर यह सिद्धान्त किया गया है कि ‘राधापति की प्रथम अवतार-रचना वैकुंठ में है। श्रीकृष्ण के अंश से नारायण हरि की उत्पत्ति हुई है और श्री राधा के अंश से कमला का प्रादुर्भाव हुआ है। जगत की रक्षा के लिये इन दोनों लक्ष्मी- नारायण अवतारों से अनेक अवतारों की रचना हुई है। वृन्दाविपिन में नित्य विहारी राधामोहन सर्वोत्कृष्ट रूप में विराजमान हैं।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ से. वि. 52
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