श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
परिचर्या
तिय के तन कौ भाव धरि सेवा हित श्रृंगार। दासी रूप के चिंतन से उपासक के चित्त में जिस भाव-स्वरूप का निर्माण होता है, वह उसका भाव-देह कहलाता है। जीव के प्राकृत देह का संचालन उसका मलिन अहंकार करता है, जिसके कारण वह अपने को अमुक जाति, कुल, वर्ण और सम्बन्धों वाला समझता है। उपासक के भाव देह का संचालन उसका शुद्ध अहंकार करता हैं, जिसके कारण वह अपने को राधामाधव की दासी एवं उनहीं के सम्बन्धों से सम्बन्धित व्यक्ति समझता है। भाव-देह के पुष्ट होने से प्राकृत देह का प्रभाव क्षीण होने लगता है एवं उससे सम्बन्धित सम्पूर्ण सम्बन्ध भी शिथिल हो जाते हैं। मनुष्य की इन्द्रियाँ निसर्गतः बहिर्मुख हैं अतः उसकी साधारण गति बाहर की और है। साथ ही, मनुष्य में कोई एक ऐसी चीज है जो बाहर की गति से सन्तुष्ट नहीं होती और उसको अन्दर की ओर जाने को प्रेरित करती है। सब साधना-मार्ग मनुष्य की इस अन्तर्मुखता को प्रोत्साहित करके उसको एक परम तोषमय पद पर पहुँचाने की चेष्टा करते हैं। दास किंवा सखीभाव की साधना मनुष्य की अंतर्मुखता को श्रीराधा-किंकरी के रूप में एक ऐसा आकर्षक एवं रुचिकर आधार प्रदान करती है जिसके सहारे वह क्रमशः बढ़ती चली जाती है। मनुष्य का अंतर्मुख रूप ही उसका स्थायी एवं वास्तविक रूप है। श्री लाड़िलीदास कहते है ‘सखी रूप त्रिगुण देह से प्रथक है। उसमें स्थित होकर ही अनुपम नित्यविहार के दर्शन होते हैं। उस रूप में स्थित होते ही त्रिगुण देह का अभिमान छूट जाता है और सुख-दुख, लाभ-अलाभ एवं मान-अमान में समता प्राप्त हो जाती है। त्रिगुण देह तें प्रथक है सखी आपनौ रूप। उज्ज्वल प्रेम की परिचर्या के लिये दासी भाव आवश्यक है और दासी भाव की स्थिति के लिये परिचर्या आवश्यक है। परिचर्या के विविध अंगों का अनुष्ठान करने से दासी भाव पुष्ट होता है और दासी भाव से की गई परिचर्या पूर्ण एवं रसमय बनती है। उपासक के मन को प्रेमाधीन बनाकर अन्तर्मुख बना देना परिचर्या का फल है। प्रेम के द्वारा अन्तर्मुख बना हुआ मन ही जड़ता के बंधनो से निकल कर परम प्रेम रस का आस्वाद करता है। इस सम्प्रदाय में परिचर्या के तीन भेद माने गये हैं- प्रकट सेवा, भावना एवं नित्यविहार। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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