हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 18

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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श्री हरिवंश-चरित्र के उपादान


वृन्दावन में यमुना तट पर एक ‘ऊँची ठौर’ देखकर श्री हित हरिवंश ने वहाँ अपना मुकाम किया। स्थानीय व्रजवासियों ने उनको बसने की दृष्टि से आया देखकर उनसे कहा- ‘आपको जितनी भूमि चाहिये उतनी लेकर यहाँ सुख पूर्वक निवास करें’। आवश्यक भूमिका निर्णय करने के लिये इन लोगों ने श्रीहित जी के हाथ में तीर-कमान देकर कहा- ‘आप यहाँ से तीर फैंकिये। आपका तीर जितनी दूर जाकर गिरेगा उतनी भूमि हम आप को प्रदान कर देंगे।' हित जी ने तीर फैंका और वह तीर-घाट किंवा चीर-घाट पर जाकर गिरा। श्री हित प्रभु ने तीर गिरने की जगह के निकट रासमंडल, उस ‘ऊँची ठौर’ पर श्रीराधा-वल्लभ जी का मन्दिर एवं इन दोनों के मध्य में ‘सेवाकुंंज’ स्थापित किया। सं. 1591 की कार्तिक शुक्ला त्रयोदशी को उन्होंने धूमधाम से अपने प्रभु का ‘पाट-महोत्सव’ किया एवं पाँच आरती और सात भोग वाली सेवा-पद्धति स्थापित की।

उत्तमदास जी का ‘श्री हरिवंश चरित्र’ यहीं समाप्त हो जाता है। इसके बाद उन्होंने भगवत मुदित जी के ‘रसिक अनन्य माल’ में दिये हुए श्री हरिवंश के शिष्यों के जीवन-वृत्तों में से कुछ घटनाओं को उठाकर श्री हरिवंश के चरित्र के साथ जोड़ दिया है। श्री हरिवंश के प्रेम-मय जीवन की वास्तविक झांकी उनके शिष्यों के चरित्रों में होती है। भगवत मुदित जी ने पहिला चरित्र नर वाहन जी का लिखा है। इस चरित्र से मालूम होता है कि वृन्दावन को बसने योग्य बनाने वाले श्री हरिवंश थे। वे गृहस्थ- वेष एवं एक भगवत-विग्रह लेकर वृन्दावन आये थे। उनके पूर्व कई बंगाली महात्मा वृन्दावन आ चुके थे। वे लोग सर्वथा अकिंञ्चन थे और तब तक उनमें से किसी को भगवत विग्रह की प्राप्ति नहीं हुई थी। उनमें से अनेक व्रज के विभिन्न लीला-स्थलों में भ्रमण करते रहते थे। श्रीरूप गोस्वामी के प्रसिद्ध ‘विदग्ध -माधव नाटक’ एवं ‘भक्ति-रसामृत-सिन्धु’ की रचना गोकुल में हुई है एवं ‘ललित-माधव-नाटक’ भद्रवन में रचा गया है। किन्तु श्री हितजी को सेवा में उपयोगी सम्पूर्ण वस्तुओं सहित वृन्दावन में वास करना था।

दिल्ली में मुगलों की सल्तनत अच्छी तरह जम नहीं पाई थी और केन्द्रीय शक्ति की दुर्बलता के कारण अनेक शक्ति केन्द्र स्थान-स्थान पर उत्पन्न होकर प्रजा का उत्पीड़न कर रहे थे। नर वाहन जी भी इसी प्रकार के शक्ति-केन्द्र थे। वे डाकुओं के सरदार थे और उन्होंने सम्पूर्ण व्रज देश को अपने वश में कर लिया था। भगवत मुदित जी ने इनका परिचय देते हुये लिख है:-

नर वाहन मै गाँव निवासी। वार-पार में एक मवासी ।।

जाकी आज्ञा कोई न टारै। जो टारै तौ चढ़िकै मारै ।। बस कर लियौ सकल व्रज देश। तासौं डरपै बड़े नरेस ।।

पातसाह के वचनहीं टारै। मन आवै तौ दगरौ मारै ।।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रसिक-अनन्य-माल

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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