हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 176

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
उपासना-मार्ग


जो पै कृष्णचरण मन अर्पित तौ करि हैं का नवग्रह रंक।[1]

दूसरे सवैये में उन्होंने समस्त अनुकूल ग्रहों को एकत्रित करके अन्त में कहा है ‘जो लोग गोविन्द को छोड़कर दशों दिशाओं में भटकते है उनकी भलाई अच्छें ग्रह नहीं कर सकते।’

गोविंद छाँड़ि भ्रमंत दशौ दिश तौ करि हैं कहा नव ग्रह नीके।[2]

अनन्य प्रेम फलाकांक्षा शुन्य होता है। वास्तव में उसमें फलाकांक्षा का प्रश्न ही नहीं उठता क्योंकि वह स्वयं फलरूप है। इसीलिये सकाम मन के द्वारा उसका ग्रहण नहीं होता। जो लोग प्रेमोपासक बनकर सकाम कर्मों में विश्वास रखते है उनकी मूढ़ता पर तरस खाकर श्री ध्रुवदास कहते हैं ‘जों व्यक्ति वृन्दावन से सम्बधित होकर तिथि और विधि को मानते हैं उनके पास प्रेम-भजन कैसे रह सकता है? वे मूढ़ अपने हाथों उसे खो देते हैं। वे ना समझी से काँच के दानों की माला में चन्द्रमणि को गुहते हैं ! उनकी समझ में यह नहीं आता कि जहाँ के यमुना पुलिन की सघन कुंजें अद्भुत सुख की सदन हैं और जहाँ प्रेम स्वरूप श्री राधा हरि नित्य प्रेम-क्रीड़ा में रत हैं, ऐसा यह वृन्दाविपिन है।'

वृन्दा विपिन निमित्त गहि तिथि बिधि मानै आन।
भजन तहाँ कैसे रहै खोयौ अपने पान।।
खोयौ अपने पानि मूढ़ कछु समझत नाहीं।
चन्द्र मणिहिं लै गुहै काँच के मनियनि माहीं।।
यमुना-पुलिन निकुंज घन अद्भुत है सुख को सदन।
खेलत लाड़िली लाल जहाँ एसौ है वृन्दा विपिन।।[3]

धर्मीं रसिक गण जिस वृन्दावन रस की उपासना करते हैं वह त्रिगुणातीत और सर्व-तन्त्र-स्वतन्त्र पदार्थ है। उसका उदय सर्व निरपेक्ष होता है, और उदय होने के बाद वह उपासक को संपूर्ण द्वन्द्वों और सीमाओं से ऊपर उठा देता है। इस रस के तटस्थ लक्षणों का वर्णन करते हुए सेवक जो ने कहा है ‘श्री हरिवंश ने श्यामा-श्याम का जो सुयश गाया है वही रस सब रसिकों को उनके सुकृत के फल रूप में प्राप्त हुआ है। इस रस में न तो विधि-निषेध का झगड़ा है, न लग्न और ग्रहों के वेध हैं। इसमें कुदिन और सुदिन कुछ नहीं हैं और न शुभ-अशुभ एवं मान-अपमान हैं। इसमें न तो असत्य, भ्रम, कपट और मिथ्या चतुराई है और न स्नान-क्रिया एवं जप-तप है। इसमें ज्ञान और ध्यान भी प्रयास मात्र हैं।[4]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. फु. वा. 1
  2. फु. वा. 2
  3. भजन कुंडलियाँ
  4. से. वा. 2-4

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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