हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 175

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
उपासना-मार्ग


हितप्रभु ने अपनी स्वामिनी के प्रति अपनी पूर्ण अनन्याश्रयता की विज्ञप्ति करते हुए कहा है, ‘हे श्रीराधे, तुम्हारे उच्छिष्ट रूपी अमृत का भोग करने वाला मैं तुम्हारे ही चरित को सुनता हुआ, तुम्हारी ही चरण-कमल-रज का स्मरण करता हुआ, तुम्हारे ही कुंज-गृहों में विचरण करता हुआ, तुम्हारे ही दिव्यगुणों का गान करता हुआ और हे रस-दायिनि, तुम्हारी ही आकृति को देखता हुआ अपने निर्मल शरीर, मन और वाणी के द्वारा तुम्हारा ही आश्रित हूँ।'[1]

लाड़िलीदास जी ने बतलाया है ‘श्यामाश्याम का भोग लगाकर और धर्मी रसिकों को भोजन कराकर शेष प्रसाद को ग्रहण करना ही श्रीहित हरिवंश के अनुयायियों का उपवास है।'

भोग लगै हित लाड़िले पुनि पवाइ हितदास।
सो प्रसाद लै पाइये यह अपनौ उपवास है।।[2]

श्री हरिराम व्यास ने उनही को श्री हरिवंश का अनुयायी माना है जिनके मन में यह दृढ़ विश्वास है कि करोड़ों एकादशी-व्रत महाप्रसाद के एक अंश के समान हैं।

कोटि-कोटि एकादशी- महा प्रसाद कौ अंश।
व्यासहि यह परतीत है जिनके गुरु हरिवंश।।[3]

नाभा जी ने अपने छप्पय में श्री हितप्रभु के सम्बन्ध में इसीलिये कहा है ‘महाप्रसाद उनका सर्वस्व था और वे उसके प्रसिद्ध अधिकारी थे। उन्होंने विधि-निषेध का त्याग करके अनन्य दासता के उत्कट व्रत को धारण किया था।'

सर्वसु महाप्रसाद प्रसिद्ध ताके अधिकारी।
विधि-निषेध नहिं दास अनन्य उत्कट व्रतधारी।।[4]

श्री हितप्रभु के समय का आस्तिक समाज अनेक देवी-देवताओं, मंत्र-तंत्रों आदि में श्रद्धा रखने के अतिरिक्त नवग्रहों के शुभाशुभ फलों पर एवं उनसे सम्बन्धित अनेक वहमों में विश्वास रखता था। स्वयं श्री हितप्रभु का जन्म एक प्रसिद्ध ज्योतिषी-घराने में हुआ था एवं उनके घर का राजतुल्य वैभव ज्योतिष-विद्या के बल से ही उपार्जित था। उनको भी बाल्यकाल में इस विद्या की शिक्षा दी गई थी। किन्तु उन्होंने उस अल्प वय में ही यह समझ लिया था कि ग्रहादिकों के ऊपर विश्वास रखने से अनन्य प्रेम बाधित होता है और भगवत्-चरणों के अति अनास्था होती है। इस सम्बन्ध में उनके दो सवैये प्राप्त होते हैं। एक में उन्होंने समस्त प्रतिकूल ग्रहों का एकत्र उल्लेख करके अंत में कहा है ‘जिस व्यक्ति ने अपने मन को श्रीकृष्ण के चरणों में अर्पित कर दिया है, उसका यह रंक नव ग्रह क्या बिगाड़ सकते हैं?'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. रा. सु. 240
  2. सु. बो.
  3. साखी
  4. भक्तमाल

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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