श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
उपासना-मार्ग
लाड़िलीदास जी ने बतलाया है ‘श्यामाश्याम का भोग लगाकर और धर्मी रसिकों को भोजन कराकर शेष प्रसाद को ग्रहण करना ही श्रीहित हरिवंश के अनुयायियों का उपवास है।' भोग लगै हित लाड़िले पुनि पवाइ हितदास। श्री हरिराम व्यास ने उनही को श्री हरिवंश का अनुयायी माना है जिनके मन में यह दृढ़ विश्वास है कि करोड़ों एकादशी-व्रत महाप्रसाद के एक अंश के समान हैं। कोटि-कोटि एकादशी- महा प्रसाद कौ अंश। नाभा जी ने अपने छप्पय में श्री हितप्रभु के सम्बन्ध में इसीलिये कहा है ‘महाप्रसाद उनका सर्वस्व था और वे उसके प्रसिद्ध अधिकारी थे। उन्होंने विधि-निषेध का त्याग करके अनन्य दासता के उत्कट व्रत को धारण किया था।' सर्वसु महाप्रसाद प्रसिद्ध ताके अधिकारी। श्री हितप्रभु के समय का आस्तिक समाज अनेक देवी-देवताओं, मंत्र-तंत्रों आदि में श्रद्धा रखने के अतिरिक्त नवग्रहों के शुभाशुभ फलों पर एवं उनसे सम्बन्धित अनेक वहमों में विश्वास रखता था। स्वयं श्री हितप्रभु का जन्म एक प्रसिद्ध ज्योतिषी-घराने में हुआ था एवं उनके घर का राजतुल्य वैभव ज्योतिष-विद्या के बल से ही उपार्जित था। उनको भी बाल्यकाल में इस विद्या की शिक्षा दी गई थी। किन्तु उन्होंने उस अल्प वय में ही यह समझ लिया था कि ग्रहादिकों के ऊपर विश्वास रखने से अनन्य प्रेम बाधित होता है और भगवत्-चरणों के अति अनास्था होती है। इस सम्बन्ध में उनके दो सवैये प्राप्त होते हैं। एक में उन्होंने समस्त प्रतिकूल ग्रहों का एकत्र उल्लेख करके अंत में कहा है ‘जिस व्यक्ति ने अपने मन को श्रीकृष्ण के चरणों में अर्पित कर दिया है, उसका यह रंक नव ग्रह क्या बिगाड़ सकते हैं?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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