हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 174

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
उपासना-मार्ग


श्रृणवन्तु सर्वे पितरः सदेवा मत्तो निराशां बलितो भवंतु।
जातोभिलाषी तु बलौ मुकन्दो हानिक्व गृहणीत जनान्तरेभ्यः।।

सम्पूर्ण वैदिक एवं स्मार्त्त कर्मों के त्याग के हेतु को स्पष्ट करते हुए उक्त गोस्वामिपाद ने कहा है ‘मैं क्या करूँ, मेरी श्रद्धा ही अन्यत्र नहीं होती और श्रद्धा के बिना कोई कर्म फल नहीं देता। मेरी श्रद्धा तो श्री हरि के भक्ति भाव में दृढ़ हो गई है। मेरी इस विवशता से संसार चाहे सदैव प्रसन्न रहो या अप्रसन्न, इसकी मुझे चिन्ता नहीं है।'

इसी विवशता ने श्री हित प्रभु को एकादशी व्रत का भी परित्याग करने को बाध्य किया था। वैदिक एवं स्मार्त्त कर्मों का त्याग तो साधारणतया सभी वैष्णव सम्प्रदायों में देखा जाता है, किसी में कम है किसी में अधिक। किन्तु एकादशी का व्रत वैष्णव व्रत है और पुराणों ने इसकी बड़ी महिमा गाई है। उधर भगवत प्रसाद किंवा महाप्रसाद का भी वैष्णव धर्म में बहुत महत्त्व है और इसकी सर्वश्रेष्ठता के प्रमाण भी प्रचुर संख्या में मिलते हैं। प्रश्न यह उपस्थित होता है कि एकादशी के दिन उपवास करना चाहिये या अन्य दिनों की भाँति उस दिन भी महाप्रसाद ग्रहण करना चाहिये? सभी वैष्णव सम्प्रदायों ने उपवास के पक्ष में निर्णय दिया है। किन्तु हम जानते हैं कि सम्पूर्ण वैष्णव उपासना का आधार स्वामि-सेवक संबंध है। भगवान स्वामी हैं और उपासक उनका अनन्य सेवक किंवा दास है। हित प्रभु ने इस अनन्य दासता की सर्वांगीण सिद्धि के लिये ही एकादशी-व्रत का त्याग किया है। सेवा विचार’ ग्रन्थ में पूछा गया है ‘जो अनन्य उपासक दास भाव से प्रतिदिन अपने स्वामी को भोजन समर्पित करता है और सदैव उनके उच्छिष्ट को खाकर अपने दिनों को व्यतीत करता है, वह वेदों के अभिप्राय को जानने वाला प्रसादान्न भोजी एकादशी के दिन अपने स्वामी के भुक्तशेष को सम्पूर्ण रूप से ग्रहण किये बिना कैसे रह सकता है?'

दासोभूत्वासमर्प्य प्रतिदिन ममलं भोजन स्वामिने तद्-
भुक्तं भुंजान एव क्षिपति यदि सदा सर्वदा स्ताननन्यः।।
एकादश्यां कथं स त्यजति निजपतेर्भुक्त शेषं ह्यशेषं।
वेदाभिप्राय वेत्ता दृढ़ हृदय गति स्तत्प्रसादान्न भोजी?[1]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. से. वि. 44

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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