हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 154

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
श्री हित हरिवंश


जै जै श्री हरिवंश लाल लालच बढ़यौ।
अद्भुत रूप रसाल बालवर उर कढ़यौ।।
कंचुकि कसनि बिदारि उरज कर परसहीं।
ज्यौं निधि पाई रंक मुदित छवि परसहीं।।
दरसि छवि कौं छैल छल बल मत्त अंक सकेलहीं।
पिबत मधु मकरंद चैंपनि भुजा अंसनि मेलहीं।।
छके लसि गसि रसहिं वितरत सुजस साँवल मुख पढ़यौ।
जै जै श्री हरिवंश लाल लालच बढ़यौ।।

‘अपनी उत्कट प्रेमाभिलाषा के प्रगट रूप प्रियतम और उस अभिलाषा की अतृप्त-पूर्ति रूप प्रिया को सहज रसमयी नित्य प्रेम-क्रीड़ा में निमग्न देखकर श्री हरिवंश अपना अंचल पसार कर उनकी प्रशंसा करते हैं। श्री हरिवंश की इस सुख-राशि का कथन-श्रवण जो कोई करता है, उसकी प्रेमाभिलाषा पूर्ण होती है और उसको श्री वृन्दावन का अनंत प्रेम-वैभव यथामति सूझने लगता है।’

श्री हरिवंश प्रसंस करत अंचल लिये।
श्यामाश्याम विहार अचल जुग-जुग किये।।
कहत-सुनत सुख राशि आस सब पूजि है।
श्री वृन्दावन ताहि यथामति सूझि हैं।।
जे जुगल रस-मत्त मधुकर ‘कली’ अलि देखे जिये।
श्री हरिवंश प्रसंस करत अंचल लिये।।

सखी रूप में श्रीहित हरिवंश नित्य प्रेम-विहार के एक अंग हैं। ललिता, विशाखा आदि प्रधान आठ सखियों में हित रूपा सखी को, इस संप्रदाय में सब से अधिक अंतरंगा माना जाता। इसका कारण यह बतलाया गया है कि ‘हितसखी के रूप में युगल की प्रधान अष्ट सखियों के मन का हित मिलकर एक बना है और यह देखकर ललितादिक सखियाँ प्रसन्नता से खिल रही हैं।'

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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