श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
राधा-चरण -प्राधान्य
वंशी अलिजी रचित ‘श्री राधिका महारास’ प्रकाशित हो चुका है। इसके अध्ययन के द्वारा हम यह दिखलाने की चेष्टा करेंगे कि हितप्रभु की उपासना की रीति को छोड़ने से श्रीराधा-प्राधान्य का क्या रूप बन जाता है। ‘राधिका-महारास’ में श्री भागवत वर्णित रासलीला का संपूर्ण अनुकरण है, केवल श्रीकृष्ण के स्थान में श्रीराधा को प्रतिष्ठित कर दिया गया है। श्रीमद्भागवत की रासलीला में श्रीराधा का नामोलेख नहीं है, इसमें श्रीकृष्ण अनुपस्थित हैं। इसमें श्रीराधा ही वेणु-वादन करती हैं और जब सखी-गण ‘गृह-तन-बन्धु बिसारि’ कर उनके निकट पहुँचती है तो श्रीराधा कहती हैं, सहचरिधर्म नाहिं यह होई, सहचरि-धर्म सख्य रस जोई। इसके उत्तर में सखीगण कहती हैं, अहो कुँवरि तुव रुप यह नाहिंन राखत धर्म। इसके बाद रास का आरंभ होता है और श्रीकृष्ण की भाँति श्रीराधा एक सखी को लेकर रास के मध्य के अंतर्धान हो जाती हैं। सखीगण परम दुखित होकर विलाप करने लगती हैं और श्रीराधा की लीला का अनुकरण करती है। श्रीराधा प्रगट होकर उनके साथ रास क्रीडा का आरंभ करती हैं, रास में सब श्रमित हो जाती हैं और- श्रम निर्वारन चलीं, कुंवरि राधा यमुना तट। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज