श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
राधा-चरण-प्राधान्य
श्रीहित हरिवंश के द्वारा प्रवर्तित रस-रीति और उपासना पद्वति में श्रीराधा की प्रधानता है। नाभाजी ने इसीलिये, उनको ‘हृदय में राधा-चरणों की प्रधानता रखकर अत्यन्त सुहृढ़ उपासना करने वाला’ कहा है, ‘राधा-चरण-प्रधान हृदय अति सुदृढ़ उपासी। सेवकजी ने भी हिताचार्य के धर्म की स्थिति 'श्रीराधा के युगल चरणों में बतलाई है, ‘श्रीराधा युग चरण निवास’। चाचा हित वृन्दावनदास ने वृन्दावन में क्रीडा करने वाले प्रेम को 'राधिका पर वश नेह' कहा है। और बतलाया है कि हितप्रभु ने अपनी वाणी में उसी का नित्य-नूतन दुलार किया है, राधिका पर वश नेह जो प्रभु, तिहि लड़ायो नित नयो। युगल उपासना में श्रीराधा की प्रधानता रखने में एक भय रहा हुआ है। इससे एक प्रकार का शक्तिवाद स्थापित होता है जो वैष्णव धर्म के मूल पर ही कुठाराघात करता है। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि वैष्णव धर्म का शाक्तमत के साथ बड़ा लम्बा संघर्ष चला था। सत्रहवीं शती के प्रारंभिक वर्षों में रची जाने वाली सेवक-वाणी में ‘साकत’ (शाक्त) के संग को अग्नि के समान दाहक बतलाया गया है, (से० वा० 14-15) और अन्यत्र उस संग को श्रीहरिवंश के उपदेशों को भुला देने वाला कहा है। (से० वा० 13-4) सेवकजी के मित्र चतुर्भुजदास जी ने, रसिक अनन्य माल के अनुसार देवी को वैष्णवी दीक्षा दी थी। नाभाजी ने इसी प्रकार की एक घटना निम्बार्क संप्रदाय के श्री हरिव्यासजी के संबंध में लिखी है। अत: यह निर्विवाद है कि सब वैष्णव संप्रदायें इस बात के लिये सतर्क थीं कि उनके किसी सिद्धान्त पर शाक्तमत की छाया न पड़ जाय । हितप्रभु ने अपने प्रेम-सिद्धान्त की रचना इस प्रकार की है कि श्रीराधा के प्रति उनका सहज पक्षपात शक्तिवाद नहीं बन पाया है। उनके सिद्धान्त में श्री राधाकृष्ण प्रेम के सहज भोग्य और भोक्ता हैं और उन में शक्ति-शक्तिमान का संबंध नहीं है। प्रेम में प्रेम पात्र की भोग्य की सहज प्रधानता होती है। नित्य प्रेम-विहार में श्रीराधा प्रेम-पात्र हैं और उनकी प्रधानता भोग्य की सहज प्रधानता है, शक्ति की प्रधानता नहीं है । </poem> |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज