हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 13

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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श्री हरिवंश-चरित्र के उपादान


इन दोनों ग्रन्थों का इतना प्राचीन साहचर्य देखकर अनुमान होता है कि ‘रसिक अनन्यमाल’ के बाद में लिखा जाने वाला प्रथम ‘श्री हरिवंश चरित्र’ यही है। इसके बाद सं. 1760 में रचित ‘हितकुलशाखा’ नामक पुस्तक में भगवत मुदित जी का या उनके रसिक अनन्यमाल का कोई उल्लेख नहीं मिलता।

दूसरी एक बात और भी है। उत्तमदास जी ने अपने ग्रन्थ में, प्रारंभ में, श्री हित-हरिवंश का चरित्र दिया है। इसमें देववन से लेकर वृन्दावन वास तक का पूरा वर्णन कर दिया है। इसमें उन्होंने श्री हित जी के जन्म का एवं सेवा स्थापन का संवत दिया है, किन्तु न तो उनके वृन्दावन-वास की अवधि बतलाई है और न निकुंज गमन का संवत दिया है। श्री हरिवंश के इस चरित्र के बाद उत्तमदास जी ने उनके प्रधान शिष्यों के चरित्र दिये हैं। मोहनदास जी के चरित्र के बाद ‘श्री जी कौ जन्मोत्सव समय वर्णन’ दिया हुआ मिलता है जिसमें श्री हित-हरिवंश के जनम का संवत, वृन्दावन आने के समय की उनक अवस्था, उनके वृन्दावन-वास की अवधि एवं उनके निकुंज गमन का संवत दिया हुआ है। इस ‘समयवर्णन’ को चरित्र के अन्यत्र लगा देख कर अनुमान होता है कि यह बाद में लगाया गया है। इस अनुमान की पुष्टि इस बात से होती है कि सं. 1760 में लिखे गये ‘हित कुल शाखा’ ग्रन्थ में उसके कर्ता महात्मा जयकृष्ण जी ने हित प्रभु के निकुंज गमन का उल्लेख करने के पूर्व रसिकों से अपने इस कार्य के लिए क्षमा-याचना की है। उन्होंने लिखा है कि ‘मैं प्रभु की आज्ञा से इस बात को लिख रहा हूँ, अत: इसमें मेरा अपराध नहीं समझना चाहिये’:-

विनती सब रसिकनि सों करौं। तुम मत दूखहु हौं अति डरौं ।।

मेरौ जिन अपराध विचारौ। कृपा अनुग्रह दृष्टि निहारौ ।। तनकसौ मुख ऐसी क्यौं भाखी। यह सुबात किन उर में राखी ।।

परिपूरन प्रभु आज्ञा दई। तब यह बुद्धि कहन कौं भई ।।[1]

इससे मालूम होता है कि जयकृष्ण जी से पहिले श्री हित हरिवंश के निकुंज-गमन का वर्णन किसी ने नहीं किया था और इस बात का लिखना सदाचार के विरुद्ध समझा जाता था। उत्तमदास जी ने भी इस घटना का उल्लेख अपने ‘चरित्र’ में नहीं किया था। जय कृष्णा जी के लिख देने के बाद उन्होंने अपने ग्रंथ में इसको ग्रहण कर लिया और जय कृष्ण जी के वर्णन का संक्षेप करके उनके कई छन्द ज्यों के त्यों उठा कर रख दिये।

उपरोक्त दो कारणों से उत्तमदास जी के श्री हरिवंश चरित्र को जय कृष्ण जी के ग्रंथ से पूर्व एवं सर्वप्रथम चरित्र मानना पड़ता है।

उत्तमदा जी गोस्वामी कुंजलाल जी के शिष्य थे। गो. कुंजलाल जी का जन्म सं. 1696 में हुआ था। अत: उत्तमदास जी कृत श्री हरिवंश चरित्र की रचना सं. 1740-45 के लगभग हुई होगी। श्री हरिवंश के निकुंज गमन के लगभग 125 वर्ष बाद लिखे जाने के कारण इसमें उनके जीवन की दैनंदिन घटनाओं का समावेश नहीं हो पाया है और दो-चार प्रधान घटनाओं का उल्लेख करके यह चरित्र समाप्त हो गया है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हितकुल शाखा

संबंधित लेख

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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