श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
श्रीराधा
सोलहवीं शती या उससे पूर्व के राधा कृष्णोपासकों में श्रीहित हरिवंश ही एक ऐसे महानुभाव हैं जिन्होंने शपथ पूर्वक श्री राधा को अपना ‘प्राणनाथ’ घोषित किया है और अपने इस निर्णय के लिये किसी की स्वीकृति की अपेक्षा नहीं रखी है। रहौ कोऊ काहू मनहिं दिये। इन्होंने ही सर्वप्रथम, संस्कृत में, श्रीराधा से संबंधित एक स्तोत्र-ग्रन्थ की रचना की ओर उसमें भी निर्भीकता पूर्वक अपनी राधा-निष्ठा को प्रकाशित किया। एक श्लोक में वे कहते हैं ‘करोड़ों नरकों के समान वीभत्स विषय-वार्ता तो दूर रही, श्रुति-कथा के श्रवण में भी व्यर्थ का श्रम ही है और कैल्य[1] से मुझे भय लगता है। शुकादिक भक्तगण यदि परेश श्रीकृष्ण के भजन में उन्म्त हो रहे हैं तो इससे भी मुझे मतलव नहीं। मैं तो यह चाहता हूँ कि श्री राधिका के चरण कमलों के रस में मेरा मन डूब जाय। अलं विषय वार्तया नरक कोटि वीभत्सया, श्रीहित हरिवंश बाल्यकाल से ही राधा-पक्षपाती थे और अल्पवय में ही उनको श्रीराधा से वह मंत्र मिल गया था जो राधावल्लभीय संप्रदाय की उपासना और रस–रीति का बीज है। हितप्रभु के द्वारा उनके शिष्यों के नाम लिखे गये दो पत्र प्राप्त हैं। द्वितीय पत्र में उन्होंने लिखा है, ‘जो शास्त्र मर्याद सत्य है और गुरु महिमा ऐसे ही सत्य है तो व्रज-नव-तरुणि-कदंब-चुड़ामणि श्रीराधे, तिहारे स्थापे गुरु मार्ग विषै अविश्वास अज्ञानी कौं होत है।’ इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि श्रीराधा हितप्रभु की गुरु थीं और उनके दिये हुए मंत्र के द्वारा ही इस संप्रदाय का प्रवर्तन हुआ था। श्रीहरिलाल व्यास ने राधा-सुधा-निधि की अपनी प्रसिद्ध ‘रस कुल्या’ टीका के मंगलाचरण में कहा है, ‘राधा ही जिनकी इष्ट है, राधा ही संप्रदाय प्रवर्तक आचार्य और मत्रदाता सद्गुरु हैं, राधा नाम ही जिनका सर्वस्व-मंत्र हैं, उन राधा-चरण-प्रधान[3] की मैं वंदना करता हूँ।’ |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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