श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
श्रीराधा
भारतीय साहित्य में राधा माधव की प्रेम स्वरुप भगवान् के रुप में वंदना अथच उनके अद्भुत प्रेम का वर्णन चाहे प्राचीन काल से होता चला आया हो किन्तु, व्यास जी की राय में, उनकी एकान्त प्रेममयी लीला का वृन्दावन की सघन कुंजों की रसमय केलि के रूप में गान सर्वप्रथम जयदेवजी ने किया है। जयदेवजी से संबंधित इस पद में व्यासजी ने अन्यत्र कहा है कि ‘उन की लीला-गान की युक्ति अखंडित से-नित्य-से मंडित है, इसीलिए वे सबके मन को भा गये। विविध विलास कलाओं का यह अपूर्व गायक जीवों के भाग्य से ही आया था' जाकी जुगति अंखडित-मंडित, सब ही के मन भायो। इसका अर्थ यह हुआ कि श्रीजयदेव ने वृन्दावन की कुंज केलि को नित्य-केलि के रूप में गाया था और इस दृष्टि से, श्रीमद्भगवत के समान ‘गीत गोविन्द’ भी सोलहवीं शती की राधाकृष्णोपासना का उपजीव्य ग्रन्थ प्रमाणित होता है। गीत गोविन्द श्रीराधा के स्वरूप-दर्शन का भी प्रथम प्रस्थान है। नित्य प्रेम-केलि से संबंधित श्रीराधा का प्रथम परिचय इसी ग्रन्थ में प्राप्त हुआ। श्रीजयदेव के बाद विद्यापति और चंडीदास ने विभिन्न लोक भाषाओं में श्रीराधा के अद्भुत प्रेम और रूप का गान करके उसको साधारण जन समाज तक पहुँचा दिया। सोलहवीं शताब्दी में श्रीराधा का स्वरूप अपनी उच्चतम कोटियों में प्रकाशित हो गया। गौड़ीय संप्रदाय और पुष्टि मार्ग में श्रीकृष्ण की प्रधानता है। प्रधानता का अर्थ यह है कि इन दोनों संप्रदायों में प्रधान रति श्रीकृष्ण के चरणों में रखकर राधा माधव की प्रेमलीला का आस्वाद किया जाता है। इस प्रधानता के होते हुए भी इन संप्रदायों में श्रीराधा का बड़ा उज्ज्वल स्वरूप प्रकाशित हुआ है। राधावल्लभीय संप्रदाय में प्रधान रति श्रीराधा के चरणों में रखी जाती है अत: श्रीराधा का सर्वोत्कष्ट स्वरूप इस संप्रदाय में प्रकाशित होना स्वाभाविक है। हितप्रभू ने राधा माधव की श्रृंगार केलि के कथन और श्रवण का एक मात्र प्रयोजन ’श्री राधा के सुकुमार पद-कमलों की रति प्राप्त कराना’ बतलाया है। (जय श्री) हित हरिवंश यथामति बरनत कृष्ण-रसामृत-सार। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हि० च० 30
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